Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 18
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा किंच विवक्षितैकदेशशुद्धनयाश्रितेयं भावना निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणक्षायोपशमिकत्वेन यद्यप्येकदेश-व्यक्तिरूपा भवति तथापि ध्यातापुरुषः यदेव सकल निरावरणमखंडैक -प्रत्यक्षप्रतिभासमयम-विनश्वरंशुद्ध-पारिणामिकपरमभाव -लक्षणं निजपरमात्मद्रव्यं तदेवाहमिति भावयति, न च खंडज्ञानरूपमिति भावार्थः। इदंतु व्याख्यानं परस्परसापेक्षागमाध्यात्मनद्वयाभि-प्रायस्यानिरोधेनैव कथितं सिद्धयतीति ज्ञातव्यं विवेकिभिः॥ 320॥ फिर वह स्पष्ट किया जाता है - विवक्षित-एकदेशशुद्धनयाश्रित यह भावना (अर्थात्, जिसे कहना चाहते हैं, ऐसी आंशिक शुद्धिरूप यह परिणति) निर्विकार-स्वसंवेदनलक्षण क्षायोपशमिकज्ञानरूप होने से, यद्यपि एकदेश व्यक्तिरूप है तथा ध्याता पुरुष ऐसा. भाता है कि 'जो सकलनिरावरण-अखण्ड-एक-प्रत्यक्षप्रतिभासमय -अविनश्वर-शुद्ध-पारिणामिकपरमभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्य, वही मैं हूँ', परन्तु ऐसा नहीं भाता कि 'खण्डज्ञानरूप मैं हूँ।' . ऐसा भावार्थ है। यह व्याख्यान, परस्पर सापेक्ष ऐसे आगम-अध्यात्म के तथा नयद्वय के (द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय के) अभिप्राय के अविरोधपूर्वक ही कहा गया होने से सिद्ध है (निर्बाध है), ऐसा विवेकी जानें।

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