Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 15
________________ 6 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा चेत्, संसारिणां शुद्धनयेन सिद्धानां तु सर्वथैव दशप्राणरूप जीवत्व भव्याभव्यत्वद्वयाभावादिति । तत्र त्रयस्य मध्ये भव्यत्वलक्षणपारिणामिकस्यतु यथासंभवं सम्यक्त्वादिजीवगुणघातकं देशघातिसर्वघातिसंज्ञं मोहादिकर्म - सामान्यं पर्यायार्थिकनयेन प्रच्छादकं भवति इति विज्ञेयं । तत्र च यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तर्व्यक्ति भवति तदायं जीवः सहज - शुद्धपारिणामिक भावलक्षणनिजपरमात्मद्रव्य -सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणपर्यायेण परिणमति । तच्च परिणमन -मागमभाषयोपशमिक क्षायोपशमिक क्षायिकं भावत्रयं भण्यते । अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभि मुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते । - - संसारियों को शुद्धनय से और सिद्धों को तो सर्वथा ही दस - प्राणरूप जीवत्व का तथा भव्यत्व - अभव्यत्वद्वय का अभाव होने से । उन तीनों में, भव्यत्वलक्षण पारिणामिक को तो यथासम्भव सम्यक्त्वादि जीवगुणों का घातक 'देशघाती' और 'सर्वघाती' ऐसे नामोंवाला मोहादिकर्मसामान्य पर्यायार्थिकनय से ढँकता है, ऐसा जानना । वहाँ जब कालादि लब्धि के वश, भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति होती है तब यह जीव, सहज - शुद्ध पारिणामिकभावलक्षण निज-परमात्मद्रव्य के, सम्यक् श्रद्धान- ज्ञान - अनुचरणरूप पर्याय से परिणमता है; वह परिणमन आगमभाषा से 'औपशमिक', ‘क्षायोपशमिक' तथा ' क्षायिक' - ऐसे भावत्रय कहा जाता है, और अध्यात्मभाषा से 'शुद्धात्माभिमुख परिणाम', 'शुद्धोपयोग' इत्यादि पर्यायसंज्ञा पाता है ।

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