Book Title: Gyanankusham Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 4
________________ ******* ज्ञानांकुशम् ****** प्रकाशकीय एक नीतिकार ने लिखा है - वज्रं रत्नेषु गोशीर्ष चन्दनेषु यथा मतम् । मणिषु वैडूर्य यथा ज्ञेयं तथा ध्यान व्रतादिषु ।। अर्थात् जिसप्रकार मूल्यवान रत्नों में वज्र, चन्दनों में गोशीर्ष तथा मणियों में वैर्यमणि को सर्वोत्तम माना जाता है, उसीप्रकार सम्पूर्ण व्रतों में ध्यान सर्वोत्तम है, ऐसा जानना चाहिये । आचायों ने आर्ष ग्रन्थों में ध्यानं प्राणाः मुनीश्वराणाम् ध्यान ही मुनीश्वरों का प्राण है. ऐसा लिखकर ध्यान के महत्त्व को लोक में विश्रुत किया है। — रयणसार ग्रन्थ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द लिखते हैं झाणाज्झयणं मुक्खं जदि धम्मे तं विणा तहा सो वि । अर्थात्- ध्यान और अध्ययन यतिधर्म के मुख्य अंग हैं। इन दोनों के अभाव में मुनित्व स्थिर नहीं रह सकता । इससे सिद्ध होता है कि ध्यान साधुता का अलंकार है। ध्यान आत्मा के साक्षात्कार का पावन पथ है। ध्यान के बिना आत्मा आत्मसंवेदन कर ही नहीं सकता। आत्मा की प्रगति ध्यान के द्वारा ही संभव है। ध्यान की उपस्थिति में आत्मा कषायकल्मषों व विषयवासनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है। ध्यान आत्मद्वार पर सजग दरबान की तरह खड़ा है। उसके होते हुए आत्मा में कर्म एवं कषायों का प्रवेश नहीं हो सकता । ध्यान के इन्हीं गुणों को अवलोकन करके आचार्यों ने ध्यान को परम संचर कहा है। जैन धर्म आत्मप्रधान धर्म है। आत्मा के निजस्वरूप को प्राप्त करने के इच्छुक मुमुक्षु जीव इसी धर्म की शरण में आते हैं। अतः आत्मस्वरूप प्रदर्शक तथा आत्मतत्त्वनिदर्शक ध्यान का वर्णन करने वाले ग्रन्थ जैनागम में पाये जाते हैं। ज्ञानार्णव ध्यान के विषय पर लिखी हुई कालजयी बृहद् जैन कृति है। आचार्य श्री शुभचन्द्र महाराज ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। ********************Page Navigation
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