Book Title: Gyanankusham Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 3
________________ ******** ** ज्ञानांकुशम् *** ******** अर्थात् - ध्यान तपों में सर्वश्रेष्ठ है, शेष तप उसके परिकर के सदृश हैं। अतएव मुमुक्षु जीवों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक निरन्तर ध्यान का अभ्यास किया जाना चाहिये । वर्तमान युग बड़ा आपाधापी का युग है। भौतिक विषयसामग्री में • उलझ जाने के कारण मन बहुत अशान्त हो गया है। मनुष्य के जीवन के शब्दकोश से शान्ति नामक शब्द ही नदारद हो गया है। उसकी बेचैनी का कहीं से कहीं तक और और छोर नहीं है। कैसे मिलेगी शान्ति ? शान्ति प्राप्त करने का एकमात्र साधन ध्यानयोग ही है। ध्यान के द्वारा मन से कषायों का पलायन हो जाता है। ध्यान मन में संतोष को भर * देता है। आत्माभिमुख होकर दुःख कारणों का विलय करने में ध्यान सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यही कारण है कि ध्यानयोग को सीखने के लिए विदेशी लोग भारत में आ रहे हैं। के भारत में ध्यान के विषय में बहुत खोज हुई है, किन्तु ध्यान के मर्म की जो चर्चा जैनागम में की गई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। जैनागम में ध्यान के विषय की प्ररूपणा करने वाले अनेकानेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उन ग्रन्थों के अध्ययन और मनन से ध्यान में प्रवेश प्राप्त करने की विधि ज्ञात होती है व सम्यक् दिग्बोध की प्राप्ति होती है। दीक्षागुरु परम पूज्य आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज की तथा पथप्रदर्शक, विद्यागुरु, परम पूज्य आचार्यकल्प श्री हेमसागर जी महाराज की परम पावन ध्यानछवि को स्मरण करके टीका करने का कार्य 'प्रारम्भ किया था, अतः यह कार्य उन्हीं के आशीर्वाद का फल है। आर्यिका सुविधिमती तथा आर्यिका सुयोगमती माताजी के अपूर्व सहयोग से यह कृति प्रकाशन के योग्य बन सकी, अतः उन्हें श्रुतज्ञान की प्राप्ति हो यही • आशीर्वाद । ग्रन्थ के समस्त सहयोगियों को आशीर्वाद । आओ, ध्यानगंगा में अवगाहन करें। मुनि सुविधिसागर ************Page Navigation
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