Book Title: Gyanankusham Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 2
________________ I ******* ज्ञानांकुशम् * लेखक की लेखनी से 1 यह आचार्य श्री योगीन्द्रदेव विरचित लघुकाय ग्रन्थ है। यद्यपि इस कृति में अनुष्टुप छन्द में रची हुई मात्र तियालीस कारिकाएँ हैं तथा एक अन्य छन्द भी है तथापि यह कृति अपने अन्तस् में द्वादशांग के बहुत से अर्थों को धारण करने वाली होने से महान है। ध्यान इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय है। मात्र पन्द्रह दिनों में मैंने इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद पूर्ण किया है। - ******** ध्यान क्या है ? ध्यान अन्तर्कान्ति है। ध्यान मन को प्रक्षालित करने का एकमेव साधन है। मनरूपी बेलगाम के घोड़े को वश में करने के लिए ध्यान ही लगाम है। सम्पूर्ण द्वंद्व भाव से अतीत होकर मन को एकाग्र करने का नाम ही ध्यान है। ध्यान की प्रशंसा करते हुए स्वयं ग्रन्थकार लिखते हैं नास्ति ध्यानसमो बन्धुर्नास्ति ध्यानसमो गुरुः । नास्ति ध्यानसमं मित्रं नास्ति ध्यानसमं तपः || २५ || अर्थात् ध्यान के समान बन्धु नहीं है। ध्यान के समान गुरु नहीं है। ध्यान के समान मित्र नहीं है और ध्यान के समान तप नहीं है। भारतीय दर्शनों में ध्यान को प्रचुर मात्रा में स्थान मिला है। ध्यान जैनदर्शन का तो प्राणतत्त्व ही है। ध्यान के बल से आत्मा अपने ऊपर लगी समस्त कर्मकालिमा को धो देता है। ध्यानेन शोभते योगा आदि सुभाषित वाक्यों के द्वारा प्राचीन काल में आचार्यों ने ध्यान की महत्ता पर प्रकाश डाला है। आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ध्यान को समस्त तपों में प्रधान तप बताते हैं । वे लिखते हैं - ध्यानमेव तपोयोगाः, शेषाः परिकराः मताः । ध्यानाभ्यासा ततो यत्नः शश्वत्कार्यो मुमुक्षुभिः । । ( आदिपुराण - २१ / ७) ** " ***[Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 135