Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
२१
और चेतनके भेदको जाननेका प्रयत्न करते हैं। और तब उनको विविध दशाओंका कारण उनके कर्मको बखानते हैं। कर्मसिद्धान्त प्रकट करता है कि जीवकी इन विविध दशाओंका कारण उनका कर्म है। कर्मका अमुक कारणोंसे आस्रव और बन्ध होता है । तथा उनका अमुक परिणाम होता है।
केवल अध्यात्मशास्त्र अर्थात आत्माके शुद्ध स्वरूपका निरूपण करनेवाले शास्त्र अध्ययनसे आत्माका एकांगी ज्ञान होता है और केवल उस ज्ञानके बलसे शुद्धात्माको प्राप्त करना शक्य नहीं है। इसीसे आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय और प्रवचनसारको रचना की। इन तीनोंके अध्ययनसे द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, छह द्रव्योंका स्वरूप आदि अनेक आवश्यक बातोंका ज्ञान होता है। फिर भी कर्मसिद्धान्तका ज्ञान नहीं होता। और कर्मसिद्धान्तका ज्ञान न होनेसे शरीरको रचना, उसमें इन्द्रियों की रचना, इन्द्रियों के द्वारा होने वाला विषयोंका ग्रहण, उससे होनेवाला रागरूप भावकर्म, उससे नवीन कर्मका बन्ध, बन्धसे पुनर्जन्म आदिका ज्ञान नहीं होता है। उस ज्ञानसे हो शरीर और इन्द्रियों में आत्मबुद्धि की भावना दूर होती है और आत्मामें हो आत्मबुद्धि का विकास होता है; क्योंकि जबतक प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाली वर्तमान अवस्थाओं के साथ आत्माके सम्बन्धका सच्चा स्पष्टीकरण न हो तब तक दृष्टि उधरसे हटकर अपनी ओर नहीं लग सकती। जब यह ज्ञान होता है कि ये सब रूप वैभाविक है, कर्मजन्यविकार है तब आत्मस्वरूपकी यथार्थ जिज्ञासा होती है। उसी अवस्था में आत्माके शुद्ध स्वरूपका उपदेश कार्यकारी होता है ।
समयसारमें शुद्ध जीवके स्वरूपके वर्णनमें लिखा है-गुणस्थान, मार्गणास्थान, योगस्थान, उदयस्थान, अनुभागस्थान, बन्धस्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान आदि जीवके नहीं हैं। इन सबका कथन कर्मशास्त्र विषयक ग्रन्योंमें है। जिसने उन्हें पढ़ा नहीं वह कैसे इनसे भेदबुद्धि कर सकेगा। अतः कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्रका अभिन्न अंग है और जो उसकी उपेक्षा करके केवल समयसारमें रमते हैं वे समयसारके मात्र ज्ञाता हो सकते हैं अनुभविता और प्राप्ता नहीं हो सकते।
पं. टोडरमल जी ने अपने मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थके आठवें अध्यायमें चारों अनयोगोंकी उपयोगिता और प्रयोजन बतलाते हुए करणानुयोगके सम्बन्ध में लिखा है
"कितने ही जीव कहते हैं कि करणानुयोगमें गुणस्थान मार्गणादिका व कर्मप्रकृतियोंका कथन किया....सो उन्हें जान लिया कि 'यह इस प्रकार है, इसमें अपना कार्य क्या सिद्ध हुआ। या तो भक्ति करे, या व्रतदानादि करे या आत्मानुभव करे, इससे अपना भला है।"
उससे कहते हैं-परमेश्वर तो वीतराग है, भक्ति करनेसे प्रसन्न होकर कुछ करते नहीं है। भक्ति करनेसे कषाय मन्द होतो है, उसका स्वयमेव उत्तम फल होता है । सो करणानुयोगके अभ्याससे उससे भी अधिक मन्द कषाय होती है इसलिए इसका फल अति उत्तम होता है। तथा व्रत-दानादि तो कषाय घटाने के बाह्य निमित्तके साधन है और करणानुयोगका अभ्यास करनेपर वहाँ उपयोग लग जाये तब रागादिक दूर होते हैं सो यह अन्तरंग निमित्तका साधन है इसलिए यह विशेष कार्यकारी है। तथा आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य है परन्तु सामान्य अनुभवमें उपयोग टिकता नहीं। और नहीं टिकता तब अन्य विकल्प होते हैं। वहाँ करणानुयोगका अभ्यास हो तो उस विचारमें उपयोग लगाता है। यह विचार वर्तमान भी रागादि घटाता है और आगामी रागादि घटानेका कारण है इसलिए यहाँ उपयोग लगाना । जीव कर्मादिके नाना भेद जाने, उनमें रागादिक करने का प्रयोजन नहीं है। इसलिए रागादि बढ़ते नहीं है। वीतराग होनेका प्रयोजन जहाँवहां प्रकट होता है इसलिए रागादि मिटानेका कारण है। कितने ही कहते हैं-करणानुयोगमें कठिनता बढ़त है इसलिए उसके अभ्यास में खेद होता है।
उनसे कहते हैं-यदि वस्तु शीघ्र जानने में आये तो वहां उपयोग उलझता नहीं है तथा जानी हुई वस्तुको बारम्बार जाननेका उत्साह नहीं होता, तब पाप कायों में उपयोग लगाता है। इसलिये अपनी बुद्धि के अनुसार कठिनतासे भी जिसका अभ्यास होता जाने उसका अभ्यास करना। तथा तू कहता है-खेद
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