Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
२३
किन्त आचार्य नेमिचन्द्रजीने अपने कर्मकाण्डमें गाथा ८से २१ तक मूल प्रकृतियों के नाम, उनका कार्य, क्रम आदि बतलाकर गाथा २२ में उनकी उत्तर प्रकृतियों के भेदोंकी संख्यामात्र बतलायी है तथा आगे दर्शनावरणके भेद पांच निद्राओं का स्वरूप तीन गाथाओंसे कहा है। गाथा २६ में दर्शन मोहके भेद मिथ्यात्वका तीन रूप होनेका कथन किया है। गाथा २७ में नामकर्मके भेद शरीर नामकर्मके संयोगी भेदोंका कथन है । गाथा २८ में शरीर के आठ अंग बतलाये हैं। गाथा २९-३२ में किस संहननसे मरकर किस गतिमें जीव जाता है इसका कथन है। ३३ वी गाथामें आतप और उष्ण नामकर्ममें अन्तर बतलाया है। इस तरह कुछ प्रकृतियोंका विशेष कार्यमात्र बतलाया है। इसको लेकर कई दशक पूर्व अनेकान्त पत्र में बड़ा विवाद चला था और इसको त्रुटि बतलाते हुए उसकी पूर्तिका भी प्रयत्न किया गया था। यह सब विवाद वीरसेवा मन्दिरसे प्रकाशित पुरातन जैन वाक्य सूचीको प्रस्तावना (पृ. ७५ आदि ) में दिया है।
उस समय स्व. पं. लोकनाथजीने मुडबिद्रीके सिद्धान्त मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें जीवकाण्ड कर्मकाण्डकी मूल प्रतियोंको खोजकर ३० दिसम्बर सन् ४० को स्व. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारको सूचित किया था कि विवादस्थ कई गाथाएँ इस प्रतिमें सूत्ररूपमें हैं और वे सूत्र कर्मकाण्डके प्रकृति समत्कीर्तन अधिकार की जिस-जिस गाथाके बाद मूल रूपमें पाये जाते हैं उनको सूचनाके साथ उनकी एक नकल भी भेजी थी। स्व. मुख्तार सा. ने पुरातन जैन वाक्य सूचीको अपनी प्रस्तावनामे वे सूत्र दिये हैं ।।
मुख्तार सा. ने लिखा था-ऐसा मालूम होता है कि गद्यसूत्र टोका-टिप्पणका अंश समझे जाकर लेखकोंकी कृपासे प्रतियों में छूट गये हैं और इसलिए उनका प्रचार नहीं हो पाया। परन्तु टीकाकारोंकी आंखोंसे वे सर्वथा ओझल नहीं रहे हैं। उन्होंने अपनी टीकाओंमें इन्हें ज्योंके त्यों न रखकर अनुवादित रूपमें रखा है और यही उनकी सबसे बड़ी भूल हुई है जिससे मूल सूत्रोंका प्रचार रुक गया है और उनके प्रभावमें ग्रन्थका यह अधिकार श्रुटिपूर्ण जंचने लगा। चुनांचे कलकत्तासे जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था द्वारा दो टोकाओं के साथ प्रकाशित इस ग्रन्थको संस्कृत टोकामें (और तदनुसार भाषा टोकामें भी) ये सब सूत्र प्रायः ज्योंके त्यों अनुवादके रूपमें पाये जाते है जिसका एक नमूना २५वीं गाथाके साथ पाये जानेवाले सूत्रोंका इस प्रकार है
मूल-"वेदनीयं दुविहं सादावेदणोयमसादावेदणीयं चेइ ।
मोहणीयं दुविहं दसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेई ॥ दसणमोहणीयं बंधादो एयविहं मिच्छत्तं ।
उदयं पडुच्च तिविहं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तं चेह॥" सं. टीका-"वेदनीयं द्विविधं सातावेदनीयमसातावेदनीयं चेति ।
मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बन्धविवक्षया मिथ्यात्वमेकविध ।
उदयं सत्त्वं प्रतीत्य मिथ्यात्वं सम्याग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्व प्रकृतिश्चेति विविधम ।" आदरणीय स्व. मुख्तार सा. को सम्भावनाको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सम्भव है ऐसा ही हो । कर्मकाण्डपर उपलब्ध प्रथम टोका कर्नाटक भाषामें जीवतत्त्वप्रदीपिका है। उसीका रूपान्तर संस्कृत टीका है। दोनों टीकाओं में मूल गाथाओंको संख्या ९७२ है किन्तु मूडबिद्रीवाली मूल प्रतिमें गाथा संख्या ८७२ है ऐसा स्व. पं. लोकनाथजीने सूचित किया था। सम्भव है क्रमसंख्यामें सौ की भूल हो गयी हो। लेखकोंके प्रमादसे ऐसा हो जाता है। किन्तु कर्नाटक टीकाके रचयिताको जो करणानुयोगक प्रकाण्ड पण्डित थे और जिन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती अभयसूरिका शिष्यत्व प्राप्त था, ऐसा भ्रम कैसे हुआ कि उन्होंने मूलको टीका-टिप्पण समझकर मूलमें सम्मिलित नहीं किया और उसका अनुवाद अपनी टीकामें दिया, यह चिन्त्य है।
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