Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
३५
कुछ दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद
श्वेताम्बर परम्परामें भी कर्मविषयक साहित्य विपुल है। यहां उसके आधारपर कुछ विशेषताओं तथा मतभेदोंका दिग्दर्शन कराया जाता है।
१. कर्मकाण्ड में केवल ध्र वबन्धिनी और ध्र वोदयी तथा उसकी विपक्षी प्रकृतियोंको ही बतलाया है । किन्तु पंचम कर्मग्रन्थमें ध्र व सत्ताका और अध्र व सत्ताका प्रकृतियोंको भी गिनाया है । १३० प्रकृतियां ध्रव सत्ताका हैं और २८ अधव सत्ताका है। दोनोंका जोड़ १५८ है जो उदयप्रकृतियों की संख्यासे ३६ अधिक है। इसका कारण यह है कि बन्ध और उदयमें नामकर्मकी वर्णादि चारको ही गिना है। इसी तरह पांच बन्धन और पांच संघातको पृथक् न गिनाकर शरीरनामकर्ममें ही सम्मिलित कर लिया है । और बन्धननामकर्मके १५ भेदोंको भी शरीरनामकर्ममें अन्तर्भूत कर लिया है अतः १६ +५+ १५ = ३६ बढ़ जाती है।
इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि ध्रुवबन्धिनी और ध्रुव उदयवाली प्रकृतियोंकी संख्या अध्र व बन्धिनी और अध्र व उदयवाली प्रकृतियोंकी संख्यासे बहुत कम है। किन्तु सत्तामें विपरीत दशा है । इसका कारण यह है कि जो प्रकृति बन्धदशामें है और जिसका उदय हो रहा है उन दोनों की हो सत्ताका होना आवश्यक है। अतः बन्ध और उदय प्रकृतियाँ सत्तामें रहती ही हैं। तथा मिथ्यात्व दशामें जिनकी सत्ता नियमसे नहीं होती, ऐसी प्रकृतियां कम ही हैं। इन कारणोंसे ध्र व सत्ताका प्रकृतियोंकी संख्या अधिक है
और अध्रव सत्ताकी कम । प्रसादि बीस, वर्णादि बीस और तेजसकार्माण सप्तककी सत्ता सभी संसारो जीवोंके रहती है अतः ये ध्रुव सत्ताका है। सैंतालीस ध्रुवबन्धिनी ध्र वसत्ताका है। तीनों वेदोंकी सत्ता ध्रव है। क्योंकि उनका बन्ध क्रमशः होता रहता है। संस्थान, संहनन, जाति, वेदनीय द्विक भी ध्र व सत्ताका हैं । हास्य. रति और अरति शोककी सत्ता नौवें गुणस्थान तक सभी जीवों के रहती है । इसी प्रकार उच्छवाप्त आदि चार, विहायोयुगल, तिर्यग्द्विक और नोच गोत्रको भी सत्ता सर्वदा रहती है। सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने से पहले सभी जीवोंके ये प्रकृतियां सदा रहती हैं इसीसे इन्हें ध्र व सत्ताका कहा है। शेष २८ अध्र व सत्ताका है। क्योंकि सम्यक्त्व और मिश्रकी सत्ता अभव्योंके तो होती ही नहीं, बहतसे भव्य के भी नहीं होती। तेजकाय-वायुकायिक जीव मनुष्यद्विककी उद्वेलना कर देते हैं अतः उनके मनुष्य द्विककी सत्ता नहीं होती। वैक्रियक आदि ग्यारह प्रकृतियों की सत्ता अनादि निगोदिया जीवके नहीं होती। तथा जो जीव उनका बन्ध करके एकेन्द्रियमें जाकर उद्वेलना कर देते हैं उनके भी महो होतो। सम्यक्त्वके होते हुए भो तोर्थकरनाम किसीके होता है किसीके नहीं होता। स्थावरोंके देवायु-नरकायुका, अहमिन्द्रों के तियंगायुका, तेजकाय, वायुकाय और सप्तम नरकके नारकियों के मनुष्यायुका बन्ध न होने के कारण उनकी सत्ता नहीं है। तथा संयम होनेपर भी आहारक सप्तक किसीके होते हैं किसीके नहीं होते। तथा उच्चगोत्र भी अनादि निगोदिया जीवोंके नहीं होता। उद्वेलना हो जानेपर तेजकाय, वायुकायके भो नहीं होता । अतः ये अट्ठाईस प्रकृतियां अध्र व सत्ताका हैं ।
गुणस्थानोंमें कुछ प्रकृतियों की ध्रुव सत्ता और अध्रुव सत्ताका कथन करते हुए कहा है--
आदिके तीन गुणस्थानोंमें मिथ्यात्वको सत्ता अवश्य होती है। आगे असंयत सम्यग्दृष्टि आदि आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्वको सत्ता होती भी है, नहीं भी होती। सासादनमें सम्यक्त्व मोहनोयको सत्ता नियमसे होती है। किन्तु शेष मिथ्यादृष्टि आदि दस गुणस्थानोंमें सम्यक्त्व मोहनीयको सत्ता होती भी है, नहीं भो होती। सासादन और मिश्र गुणस्थानोंमें मिश्र प्रकृतिको सत्ता नियमसे रहती है शेष मिथ्यादष्टि आदि नो गुणस्थानोंमें उसकी सत्ता भजनोय है। इसी प्रकार आदिके दो गुणस्थानोंमें अनन्तानुबन्धोकी सत्ता नियम रहती है शेष तीसरे आदि नौ गुणस्थानों में उसको सत्ता भजनीय है। मिथ्यात्व आदि सभी गणस्थानों में आहारक सप्तकको सत्ता भजनोय है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष सभी गणस्थानों में तीर्थंकर
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