Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्ड
उसके पश्चात् 'असिदि सदं किरियाणं' आदि प्राचीन गाथा आती है जिसमें कहा है कि क्रियावादियोंके एक सो अस्सी, अक्रियावादियोंके एक सौ चौरासी, अज्ञानवादियोंके सड़सठ और वैनयिकोंके बत्तीस, इस तरह तीन सौ तरेसठ मत हैं। आगे इन तीन सौ तरेसठ मतको उपपत्ति दी गयी है । श्वे. सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्धके बारहवें अध्ययनमें भी उक्त मतोंकी चर्चा है । और टीकाकार शीलांकने अपनी टीकामें उनकी उपपत्ति भी दी है । किन्तु दोनों में अन्तर है । अमितगतिके पंचसंग्रह ( पू. ४१ आदि ) में भी यह सब कथन है जो कर्मकाण्डका ऋणी प्रतीत होता है, क्योंकि प्रा. पंचसंग्रहमें यह कथन नहीं है ।
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अन्तमें एक गाथा के द्वारा जो सन्मति तर्कमें ( का. ३, गा. ४७ ) भी है, कहा गया है जितने वचन के मार्ग हैं उतने ही नयवाद है । और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं । परसमयोंका कथन मिथ्या है क्योंकि वे सर्वथा वैसा मानते हैं और जैनोंका कथन यथार्थ हैं क्योंकि वे स्याद्वादी हैं ।
८. त्रिकरण चूलिका -
इस अधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणका स्वरूप वर्णित है । जीवकाण्डके प्रारम्भ में भी इन तीनों का स्वरूप गुणस्थानोंके प्रसंगसे कहा है । इन तीनोंका स्वरूप बतलानेवाली गाथाएँ भी वे ही हैं। जो जीवकाण्डमें हैं । किन्तु यहाँ मूलग्रन्थकारने स्वयं अंकसंदृष्टि के द्वारा इन करणों को समझाया है ।
९. कर्मस्थिति रचनाधिकार
प्रति समय बँघनेवाले कर्मपरमाणु आठों कर्मोंमें या सात कर्मों में विभाजित हो जाते हैं और प्रत्येक कर्म प्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषेकोंकी रचना उसकी स्थिति अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है, अर्थात् बन्धको प्राप्त वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर क्रमशः प्रति समय एक- एक निषेकके रूपमें खिरने प्रारम्भ होते हैं । उनकी रचनाको ही कर्मस्थिति रचना कहते हैं । उसीका कथन इस अधिकार मे विस्तारसे है । संक्षेपमें यह कथन दूसरे अधिकारके अन्तर्गत स्थिति बन्धाधिकारमें भी किया है, फलतः इस अधिकार में जो ९१४ से ९२१ तककी गाथाएँ हैं वे सब उस अधिकारमें आती है । वहाँ उनका क्रमांक १५४ - १६२ है ।
बंधने के पश्चात् कर्म तत्काल फल नहीं देता, कुछ समय बाद फल देता है और उस समयको आबाधाकाल कहते हैं । यह आबाधाकाल कर्मकी स्थिति अनुसार होता है। एक कोटी-कोटी सागर की स्थिति में एक सौ वर्ष आबाधाकाल होता है । अर्थात् यदि किसी कर्मकी स्थिति एक कोटी-कोटी सागर बँधी हो तो वह कर्म सो वर्षके बाद अपना फल देना प्रारम्भ करता है । और सौ वर्ष कम एक कोटी-कोटी सागर काल तक अपना फल देता रहता है । अतः उस कर्मकी निषेक रचना सौ वर्ष कम एक कोटि-कोटि सागर के समय प्रमाण होती है। प्रति समय एक-एक निषेक उदयमें आता रहता है। आयुकर्मकी आबाघामें अपवाद है । उसकी निषेक रचना जितनी आयु बाँधी है उतने समयप्रमाण होती है क्योंकि आयुकर्मके स्थितिबन्धमें उसका आबाषाकाल सम्मिलित नहीं है । इसी आबाधाकालके कारण कोई कर्म देर में फल देता है और कोई तत्काल फल देता है ।
इस अधिकार के अन्त में ग्रन्थकारकी प्रशस्ति गाथा ९६५ से ९७२ तक है । उसमें ग्रन्थकारने इस ग्रन्थकी रचना में निमित्त चामुण्डरायके ही क्रिया-कलापोंका वर्णन किया है। अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा ।
इस प्रकार इस ग्रन्थका विषय-परिचय जानना । यह ग्रन्थ कर्मसिद्धान्तका सिरमौर जैसा है । इसमें पूर्वरचित कर्मसिद्धान्त-विषयक ग्रन्थोंका सार आ जाता है ।
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