Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो । कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ||२||
प्रकृतिः शीलं स्वभावः जीवांगयोः अनादिः संबंधः । कनकोपले मलमिव तयोरस्तित्वं स्वतः सिद्धं ॥
प्रकृतिये बोडं शीलम दोडं स्वभाव में बुदत्थं । कारणांतरनिरपेक्षमप्पुवं स्वभाव में बुदु । अग्निगूर्ध्वज्वलनमुं वायुवि तिर्यक्पवनमुं नोरिंग निम्नगमनम् मे तु स्वभावो, हि स्वभाववन्तमपेक्षत इति । कयोः स्वभावः एंदिते दोडे जीवांगयोः जीवकम्मंणोः जीवस्वभावभुं कर्मस्वभावमुबदर्थमल्लि रागादिपरिणमनमात्मन स्वभावमक्कुं । रागाद्युत्पादकत्वं कम्मंस्वभावमक्कुमंतादोडे इतरेतराश्रयदोषमागि बकुमेदोडे तद्दोषपरिहारार्त्यमागि अनादिः संबंधः एंड पेल्पटु । १० जीवकमंगळ संबंधक्कनादित्वमं टप्पूदरमा दोषं पोईददक्के दृष्टांतमं तोरिदपरु । कनकोपले मलमिव कनकोपलदो सुवर्णमलंगळगे संबंधर्म तंते अनादिः संबंध: एंदिदरवमे अमूर्तो जीवः मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यत इति चोद्यमपाकृतं भवति ।
जीवक मंगळ स्तित्वमे तु सिद्धमें दोर्ड पेदपरु । तयोरस्तित्वं जीवकम्मंगळस्तित्वं स्वत:सिद्धबुदु पेळपट्टुददे तें दोडे अहं प्रत्ययवेद्यत्वादिदमात्मास्तित्वमुं ओब्यं दरिद्रनोन्वं श्रीमन्तनितु १५ विचित्र परिणमनदत्तणदं कम्र्मास्तित्वमं सिद्धमेंदु ज्ञातव्यमक्कुं ।
संसारिजीवं कर्मनोकम्मंगळु तनगमाळप प्रकारमं पेव्वपरु
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प्रकृतिः शीलं स्वभाव इत्यर्थः । सोऽपि कारणान्तरनिरपेक्षता अग्निवायुजलानामूर्ध्वतिर्यग्निम्नगमनवत् । सहि स्वभाववन्तमपेक्षते इति । कयोः सः ? जीवाङ्गयोः - जीवकर्मणोः । तत्र रागादिपरिणमनमात्मनः स्वभावः रागाद्युत्पादकत्वं तु कर्मणः तदेतरेतराश्रयदोषः तत्परिहारार्थं तयोः जीवकर्मणोः संबन्ध अनादिरित्युक्तम् । क इव ? कनकोपले मलमिव स्वर्णपाषाणे स्वर्णपाषाणयोः संबन्धस्य अनादिरिव । अनेन अमूर्तो जीवः मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते ? इत्यप्यपास्तं । तयोरस्तित्वं कुतः सिद्धं ? स्वतः सिद्धं । अहंप्रत्ययवेद्यत्वेन आत्मनः दरिद्रश्रीमदादिविचित्र परिणामात् कर्मणश्च तत्सिद्धेः || २ || संसारिणां कर्मनो कर्मग्रहणप्रकारमाह
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प्रकृति किसे कहते हैं ? यह कहते हैं
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I
जैसे अग्निका ऊर्ध्वगमन, वायुका तिर्यग्गमन और जलका नीचेको गमन स्वभाव है उसी प्रकार अन्य कारण निरपेक्ष जो होता है उसे प्रकृति या शील या स्वभाव कहते हैं । ये तीनों शब्द एकार्थक हैं । यहाँ जीव और कर्मके स्वभावसे प्रयोजन है। रागादि रूप परिणमन आत्माका स्वभाव है तथा रागादि उत्पन्न करना कर्मका स्वभाव है । किन्तु ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आता है इसलिए उस दोषको दूर करनेके लिए जीव और कर्मके सम्बन्ध को अनादि कहा है । जैसे स्वर्णपाषाणमें स्वर्ण और पाषाणका सम्बन्ध अनादि है उसी तरह जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है । इससे यह तर्क निरस्त कर दिया कि अमूर्त जीव मूर्त कर्म से कैसे बँधता है । अब प्रश्न होता है कि जीव और कर्मका अस्तित्व कैसे सिद्ध होता है। तो उत्तर है कि स्वतःसिद्ध है । क्योंकि आत्मा तो 'मैं' इस प्रत्ययसे जाना जाता है और कोई दरिद्र और कोई श्रीमान् देखा जाता है इससे कर्मका अस्तित्व सिद्ध होता है ॥२॥ संसारी व कर्म-कर्म को कैसे ग्रहण करता है, यह कहते हैं
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१. म तंते ।
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