Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
२९ वर्चाके प्रारम्भमें वीरसेन स्वामीने कहा है - मिथ्यात्व आदि दस प्रकृतियोंकी उदयको व्युच्छित्ति मिध्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है यह महाकर्म प्रकृति प्राभृतका उपदेश है ।
चूर्णिसूत्रकर्ता यतिवृषभाचार्यके उपदेशसे मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समय में पाँच प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद होता है क्योंकि उनके मतसे चार जाति और स्थावर प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद सासादन गुणस्थान में होता है |
गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी इस मतभेदका कथन है । कर्मकाण्डमें त्रिचूलिकानामक अधिकार के अन्तर्गत नौ प्रश्नचूलिकामें उक्त तेईस प्रश्नों में से नौ प्रश्नोंका कथन है । शेषमें से कुछका कथन बन्धाधिकार और उदयाधिकारमें है ।
इस अधिकारके प्रारम्भमें प्रकृतिबन्धके कथन के पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है । यह कथन जीवस्थानकी चूलिकाके अन्तर्गत छठी और सातवीं चूलिकाका ऋणी है । छठी चूलिकामें मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति, आबाधा तथा निषेक रचनाका कथन है । और सातवीं चूलिका में उनकी जघन्यस्थिति आदिका कथन है । यथा
पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस सागरोपम कोडाफोडी है ॥ ४ ॥
उनका तीस हजार वर्ष आबाधाकाल है ॥ ५ ॥
आबाधाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है ॥ ६ ॥
( - षट्खं पु. ६, पू. १४६ - १५० )
इसी प्रकार जघन्य स्थिति आदिका भी कथन है ।
किन्तु कर्मकाण्ड में संज्ञीपञ्चेन्द्रियसे लेकर बसंज्ञीपञ्चेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय, एकेन्द्रिय और उनके अवान्तर भेदों में जो स्थिति बन्धका निरूपण है वह यहीं नहीं है । और न स्थिति बन्धके स्वामियोंका कंथन यहाँ है ।
कर्मकाण्ड में स्थितिबन्धके बाद अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्धका कथन है वह भी यहीं नहीं है । धवला प्रश्न किया गया है कि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तथा अनुभागबन्ध क्यों नहीं कहा ? उत्तरमें कहा है-- अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के अविनाभावि प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्धका कथन किये जाने पर उनका कथन स्वतः सिद्ध है । तथा प्रदेशबन्ध से योगस्थान सिद्ध होते हैं । ( ये योगस्थान जगत श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं । ) क्योंकि योगके बिना प्रदेशबन्ध नहीं हो सकता ।
इस प्रकार प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्धके द्वारा यहाँ चारों हो बन्धका कथन हो जाता है ।
पञ्चसंग्रहके शतक नामक चतुर्थ अधिकारमें भी चारों बन्धोंका कथन है । उसमें बन्धके नौ भेद किये हैं - सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, प्रकृतिस्थानबन्ध, भुजाकारबन्ध, अल्पतरबन्ध, अवस्थित - बन्ध और स्वामित्वकी अपेक्षा बन्ध । और क्रमसे उनका कथन किया है। कर्मकाण्डमें आदिके चार भेदोंका कथन तो इसी अधिकारमें किया है । शेषका कथन पाँचवें बन्धोदय सत्वयुक्त स्थान समुत्कीर्तन अधिकार में किया है । सादिबन्ध आदिका निरूपण दोनोंमें समान है। इतना ही नहीं किन्हीं गाथाओं में भी समानता है ।
यथा
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साइ अाइ य धुव अद्धवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तए साइसेसा अणाइ घुवसेसओ आऊ ।। ३२५ ॥
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- पञ्चसंग्रह |
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