Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
२७
आगे बन्धके चार भेदोंके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य भेद किये हैं और उन उत्कृष्ट आदिके भी सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव भेद किये हैं। आगे उनका स्वरूप कहा है ।
अनादि अनन्त - जिस बन्ध या उदय की परम्पराका प्रवाह अनादिकाल से बिना किसी रुकावटके चला आता है, मध्य में न कभी व्युच्छिन्न हुआ, न होगा उस बन्ध या उदयको अनादि अनन्त कहते हैं । ऐसा बन्ध या उदय अभंग जीवके ही होता है ।
अनादिसान्त - जिस बन्ध या उदयकी परम्पराका प्रवाह अनादिकालसे बिना रुके चले आनेपर भी आगे व्युच्छिन्न होनेवाला है उसे अनादिसान्त कहते हैं। यह भव्य के ही होता है ।
सादिसान्त --- जो बन्ध या उदय बीचमें रुककर पुनः प्रारम्भ होता है और कालान्तर में व्युच्छिन्न हो जाता है उसे सादिसान्त कहते हैं । सादि अनन्त भंग घटित नहीं होता; क्योंकि जो बन्ध या उदय सादि होता है वह अनन्त नहीं होता ।
इस प्रकरण में कर्मो के बन्ध, उदय और सत्त्वका विवेचन गुणस्थानों और मार्गणाओं में किया गया है । यह विवेचन आठों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंको लेकर किया है। भेद विवक्षा में आठों कर्मों को प्रकृति संख्या एक सौ अड़तालीस होती है । किन्तु अभेद विवक्षामें बन्ध प्रकृतियोंकी संख्या एक सौ बीस और उदय प्रकृतियों की संख्या एक सो बाईस है। इसका कारण यह है कि स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण नामकर्मके बीस भेदों मेंसे अभेदविवक्षामें चार ही लिये जाते हैं तथा पाँच बन्धन और पाँच संघात नामकर्मोंको शरीर नामकर्म में सम्मिलित कर लेते हैं । अतः सोलह और दस छम्बोस प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं । तथा बन्ध केवल एक मिथ्यात्वका ही होनेसे बन्ध प्रकृतियोंकी संख्या में से सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति कम हो जाती हैं । अतः उदय प्रकृतियाँ एक सो बाईस और बन्ध प्रकृतियाँ एक सौ बीस होती हैं ।
प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृतियोंको तीन दशाएँ होती हैं—बन्ध, अबन्ध, बन्धव्युच्छित्ति । उदय, अनुदय, उदयव्युच्छित्ति । सत्व, असत्व, सत्त्रव्युच्छित्ति ।
जिस गुणस्थान में जितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय और सत्ता होती है उसमें उतनी बन्ध, उदय, समें रहती है । जितनेका बन्ध, उदय, सत्त्व नहीं होता उतनी अबन्ध, अनुदय, असत्वमें रहती हैं । और जिन प्रकृतियों का बन्ध, उदय या सत्ता जिस गुणस्थानसे आगे नहीं होती, उनकी बन्ध, उदय, सरवव्युच्छित्ति उस गुणस्थान में होती है। जैसे प्रथम गुणस्थानमें एक सौ बीस बन्ध प्रकृतियों में से एक सौ सत्रह का बन्ध होता है, तीनका बन्ध नहीं होता । तथा एक सौ सतरह में से सोलह प्रकृतियाँ आगेके गुणस्थानोंमें नहीं बँधती हैं । अतः एक सौ सतरहका बन्ध, तीनका अबन्ध, सोलहको बन्धव्युच्छित्ति कही जाती है ।
षट्खण्डागमके तीसरे खण्डका नाम बन्ध स्वामित्व विचय है । जिसका अर्थ होता है— बन्धके स्वामीपनेका विचार । इसका अर्थ सूत्र है -
"एदेसि चोदसण्हं जीवसमासाणं पयडिबन्धवोच्छेदो कादव्वो होदि ।”
अर्थ - "इन चौदह गुणस्थानों में प्रकृतिबन्धके व्युच्छेदका कथन कर्तव्य ।" इसकी टीका धवलामें यह प्रश्न उठाया है कि यदि यहाँ प्रकृतिबन्धव्युच्छेदका कथन है तो इसका नाम बन्धस्वामित्वविचय कैसे घटित हुआ ? उत्तर में कहा है- "इस गुणस्थानमें इतनी प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद होता है ।" ऐसा कहनेपर उससे नीचे के गुणस्थान उन प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी हैं यह सिद्ध होता है ।
जैसे सूत्र पांच में कहा है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय, इनका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ?
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