Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्ड दि. प्राकृत पञ्चसंग्रहके दूसरे अधिकारका नाम भी प्रकृतिसमुत्कीर्तन है । उसको भी मंगलगाथामें , प्रकृतिसमुत्कीर्तनको कहनेको प्रतिज्ञा की गयी है । उसमें बारह गाथाएँ हैं और कुछ प्राकृत सूत्र हैं।
प्रथम चार गाथाओंमें-से मंगल गाथाको छोड़कर शेष तीन गाथाएँ कर्मकाण्ड में २०, २१, २२ संख्याको लिये हए पायी जाती हैं। २२वीं गाथा में थोड़ा-सा परिवर्तन किया गया है।
पंचसंग्रह में आठों कर्मों की प्रकृतियों की संख्या बतलाकर प्रकृतियों के नामादिका कयन गद्य सत्रों द्वारा ही किया गया है। उसीका अनुसरण नेमिचन्द्राचार्यने भी किया था ऐसा मडबिद्रीके भण्डारको कर्मकाण्डकी प्रतिसे ज्ञात होता है। पंचसंग्रहमें गद्य सूत्रों के द्वारा क्रमसे सब प्रकृतियोंका निर्देश किया है । कर्मकाण्डमें सोच-बीच गाथासूत्र देकर प्रकृतियोंके सम्बन्धमें आवश्यक उपयोगी कथन भी किया है। अतः मूड़विद्रीकी कर्मकाण्डकी प्रतिमें वर्तमान गद्य गाथासूत्र कर्मकाण्डके अंग हो सकते हैं। कर्मकाण्डको कन्नड और संस्कृत टोकामें उन सूत्रोंका भाषान्तर अक्षरशः पाया आना भी उसका समर्थन करता है।
इस प्रकृतिसमुत्कीर्तनमें चार घातिकर्मों की सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियाँ तथा सब कर्मों की पुण्य और पाप या प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियाँ नामोल्लेखपूर्वक गिनायी हैं। तथा विपाककी अपेक्षा उनके चार भेदों में भी पृथक्से गिनायी हैं। वे भेद है-पुद्गलविपाको, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाको । आगे कर्ममें चार निक्षेपोंको घटित किया है। इसी प्रसंगमें ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्यकर्मके तीन भेदोंमें-से भत शरोरके च्युत-च्यावित और त्यक्त भेदोंका स्वरूप कहा है। मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें चारों निक्षेपोंको सुगम बतलाकर नोकर्म द्रव्यकर्मका ही विवेचन किया है। जिस-जिस प्रकृतिका जो-जो उदयफलरूप कार्य होता है उस-उस कार्य में जो बाह्य वस्तु निमित्त होती है उस वस्तुको उस प्रकृतिका नोकर्म कहते हैं । इस कथनके साथ यह प्रथम अधिकार समाप्त होता है।
यहाँ हम चूलिका आगत आठ कर्म सम्बन्धी आठ सूत्रोंको धवलाटोकाका संक्षिप्त अनुवाद उपस्थित करते हैं उससे पाठक आठों कर्मों का स्वरूप समझ सकेंगे।
णाणावरणीयं ॥५॥ जो ज्ञानको आवरण करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है । शंका-ज्ञानावरणके स्थानपर ज्ञानविनाशक क्यों नहीं कहा?
समाधान नहीं, क्योंकि जीवके लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शनका विनाश नहीं होता। यदि ज्ञान और दर्शनका विनाश माना जाये तो जीवका भो विनाश हो जायेगा; क्योंकि लक्षणसे रहित लक्ष्य नहीं पाया जाता।
शंका-ज्ञानका विनाश नहीं माननेपर सभी जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है ?
समाधान-उसमें कोई विरोध नहीं है; क्योंकि अक्षरका अनन्तवा भाग नित्य उद्घाटित रहता है ऐसा सूत्र में कहा है । अतः सब जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है।
शंका-यदि ऐसा है तो सब अवयवोंके साथ ज्ञानकी उपलब्धि होना चाहिए ।
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि आवरण किये गये ज्ञानके भागोंकी उपलब्धि मानने में विरोष आता है।
शंका-आवरण सहित जीवमें आवरण किये गये ज्ञानके भाग क्या हैं अथवा नहीं हैं ? यदि हैं तो उन्हें आवरित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो सर्वात्मना सत हैं उनको आवरित मानने में विरोध आता है। यदि नहीं हैं तो उनका आवरण नहीं माना जा सकता: क्योंकि आवियमाणके अभावमें आवरणके अस्तित्वका विरोष है।
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