Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्ड
वेदनीय। अनियत के दो भेद है-विपाककाल अनियत और अनियत विपाक । दृष्टधर्मवेदनीयके दो भेद हैसहसा वेदनीय और असहसा वेदनीय । शेष भेदोंके भी चार भेद है-विपाककाल अनियत । विपाकानियत, विपाकनियत विपाककाल अनियत, नियतविपाक नियतवेदनीय और अनियत विपाक अनियतवेदनीय।
किन्तु जैनदर्शनमें वणित कर्मके भेदोंकी तुलनाके योग्य कोई भेद अन्य दर्शनोंमें वणित पूर्वोक्त भेदों में नहीं पाया जाता। योगदर्शन में कर्मका विपाक तीन रूपसे बतलाया है-जन्मके रूप में, आयके रूपमें और योगके रूपमें । किन्तु अमुक कर्माशय आयुके रूपमें अपना फल देता है, अमुक कर्माशय जन्मके रूपमें अपना फल देता है और अमुक कर्माशय भोगके रूप में अपना फल देता है यह बात वहां नहीं बतलायो है। यदि यह भी वहाँ बतलाया गया होता तो योगदर्शनके आयुविपाकवाले कर्माशयकी जैनदर्शनके आयुकर्मसे और जन्मविपाकवाले कर्माशयकी नामकर्मसे तुलना की जा सकती थी। किन्तु वहां तो सभी कर्माशय मिलकर तीनरूप फल देते हैं। जो कर्माशय दृष्टजन्मवेदनीय होता है वह केवल दो ही रूप फल देता है, जन्मान्तरमें न जानेसे उसका विपाक जन्मरूपसे नहीं होता। अन्य दर्शनों में वर्णित कर्मके जो भेद पहले गिनाये हैं वे जैनदर्शनमें वणित कर्मों की विविध दशाएँ हैं जिनका कथन आगे करेंगे।
कमंशास्त्र अध्यात्मशास्त्र है
जिसमें एक आत्माको लेकर कथन किया जाता है उसे अध्यात्मशास्त्र कहते हैं । इस प्रकार अध्यात्मशास्त्रका उद्देश्य आत्माके स्वरूपका विचार है। द्रव्यसंग्रह (गा. ५७ ) और समयसारकी टीकाके अन्त में 'अपनी शुद्ध आत्मामें अधिष्ठानको अध्यात्म' कहा है। यही अध्यात्मका प्रयोजन है। द्रव्य संग्रहकी गा. १३ में कहा है
मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया ।
विष्णेया संसारी सम्वे सुद्धा ह सुद्धणया ॥ अर्थ-संसारी जीव अशुद्धनयकी दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानोंको अपेक्षा चौदह प्रकारके होते हैं और शुद्धनयसे सब जीव शुद्ध हैं।
इसकी टीकाके अन्तमें टीकाकारने कहा है कि उक्त गाथाके तीन पदोंसे 'गुणजीवा पज्जत्ति' इत्यादि गाथामें जो बोस प्ररूपणा कही है, वे धवल, जयधवल, महाधवल नामक तीन सिद्धान्त प्रन्योंके बीजपद रूप हैं, उनको सूचित किया है और गाथाके चतुर्थ पाद 'सब्वे सुद्धा सुद्धणया' से पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार नामक तीन प्राभृतोंके बीजपदको सूचित किया है ।
इस तरह उक्त गाथामें सिद्धान्त या आगम और अध्यात्म दोनोंकी ही कथनीको संग्रहीत बतलाया है। साथ ही दोनोंके भेदको भी स्पष्ट किया है। और दोनोंके पारस्परिक सम्बन्धको भी सूचित किया है। उक्त टीकाके अनुसार अध्यात्ममें आत्माके पारमार्थिक शुद्ध स्वरूपका वर्णन होता है और आगम या सिद्धान्तमें उसके व्यावहारिक स्वरूपका कथन होता है। मोक्षके अभिलाषीको इन दोनों ही स्वरूपोंको जानना आवश्यक है, क्योंकि एक उसके शद्ध स्वरूपको बतलाता है तो दूसरा उसके वर्तमान अशुद्ध स्वरूपको। और अशुद्धता उसके ही कर्मोंका परिणाम है। अतः जबतक वह अपनी वर्तमान परिणतिके कारण कलापोंसे परिचित न होगा तबतक उससे छूटने का प्रयत्न नहीं करेगा। इस दृष्टिसे कर्मशास्त्र भी अध्यात्म शास्त्रका ही अंग है। इसीसे समयसार नामक अध्यात्मशास्त्रमें संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वके साथ आस्रव और बन्धतत्त्वका भी विवेचन है। उनके विना शेष तत्त्वोंका कथन ही निरर्थक हो जाता है।
हमारे सामने आत्मा दृश्य नहीं है । दृश्य है मनुष्यों के विविध रूप और पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि । जो हमें चलते-फिरते दृष्टिगोचर होते हैं, उनमें कुछ समझदार है तो कुछ नासमन्त। इन्हीं के द्वारा हम जह
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