Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
१९
अतः पुदगलपिण्डकी शक्तिरूप भावकर्म तज्जनित अज्ञानादि रूप भावकर्मके अभावमें निष्फल होकर झड़ जाते हैं। पुद्गल पिण्डको शक्ति प्रदान करनेवाले जीवके भावकर्म ही हैं, जो जीवकी ही करतूत है।
उक्त दो भेद अन्य दर्शनों में नहीं मिलते । प्रायः शास्त्रकारोंने कर्मके भेद दो दृष्टियोंसे किये है-एक विपाकी दृष्टि से और दूसरा विपाककालकी दृष्टिसे । कर्मका फल किस-किस रूप होता है और कब होता है प्रायः इन्हीं दो बातोंको लेकर भेद किये गये हैं। कर्मके भेदोंका उल्लेख तो प्रायः सभी दर्शनकारों ने किया है किन्तु जैनेतर दर्शनोंमेंसे योगदर्शन और बौद्ध दर्शन में ही कर्माशय और उसके विपाकका कुछ विस्तृत वर्णन मिलता है और विपाक तथा विपाककालकी दृष्टिसे कुछ भेद भी गिनाये है परन्तु जैनदर्शनमें उसके भेद. प्रभेदों और विविध दशाओंका बहुत ही विस्तृत और सांगोपांग वर्णन है। तथा जैनदर्शनमें कोंके भेद तो विपाकको दृष्टिसे ही गिनाये हैं किन्तु विपाकके होने, न होने, अमुक समयमें होने वगैरहकी दृष्टिसे जो भेद हो सकते हैं उन्हें कर्मों की विविध दशाके रूपमें चित्रित किया है। अर्थात कर्मके अमुक-अमुक भेद है और उनको अमुक-अमुक अवस्थाएं होती है। अन्य दर्शनोंमें इस तरहका श्रेणिविभाग नहीं पाया जाता। जैसा मागे स्पष्ट किया जाता है।
कर्मके दो भेद अच्छा और बुरा तो सभी मानते हैं। इन्हें ही विभिन्न शास्त्रकारोंने शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुक्ल, कृष्ण आदि नामोंसे कहा है । इसके अतिरिक्त भी विभिन्न दर्शनकारोंने विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न भेद किये हैं । गोतामें (१।१८) सात्त्विक, राजस, तामस भेद पाये जाते हैं । संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण भेद भी किये गये हैं। किसी मनुष्यके द्वारा किया गया जो कर्म है, चाहे वह इस जन्ममें किया गया हो या पूर्व जन्ममें, वह सब संचित कहाता है। इसीका दूसरा नाम अदृष्ट और मीमांसकोंके मतमें अपूर्व है। इन नामोंका कारण यह है कि जिस समय कर्म या क्रिया की जाती है उसी समय के लिए वह दृश्य रहती है । उस समयके बीत जानेपर वह स्वरूपतः शेष नहीं रहती, किन्तु उसके सूक्ष्म अतएव अदृश्य अर्थात् अपूर्व और विलक्षण परिणाम ही शेष रह जाते हैं। उन सब संचित कर्मोको एक साथ भोगना सम्भव नहीं है। क्योंकि उनमेंसे कुछ परस्पर विरोधी अर्थात अच्छे और बुरे दोनों प्रकारके फल देनेवाले हो सकते हैं। उदाहरणके लिए कोई संचित कर्म स्वर्गप्रद और कोई नरक ले जानेवाला होता है। अतएव संचितसे जितने कोके फलोंको भोगना पहले प्रारम्भ होता है उतनेको प्रारब्ध कहते हैं।
लोकमान्य तिलकने अपने गीतारहस्यमें (पृ. २७२) क्रियमाण भेदको ठीक नहीं माना है। उन्होंने लिखा है
'क्रियमाण....का अर्थ है जो कर्म अभी हो रहा है अथवा जो कर्म अभी किया जा रहा है। परन्तु वर्तमान समयमें हम जो कुछ करते हैं वह प्रारब्ध कर्मका ही परिणाम है । अतएव क्रियमाणको कर्मका तीसरा भेद माननेके लिए हमें कोई कारण नहीं दीख पड़ता।'
वेदान्त सूत्रमें (४।१।१५) कर्मके प्रारब्ध कार्य और अनारब्ध कार्य दो भेद किये हैं । लोकमान्य इन्हें ही उचित मानते हैं।
योगदर्शन में कर्माशयके दो भेद किये हैं-एक दृष्ट जन्मवेदनीय और दूसरा अदृष्ट जन्मवेदनीय । जिस जन्ममें कर्मका संचय किया है उसी जन्ममें यदि वह फल देता है तो उसे दृष्ट जन्मवेदनीय कहते हैं और यदि दूसरे जन्ममें फल देता है तो उसे अदृष्ट जन्मवेदनीय कहते हैं। दोनोंमेंसे प्रत्येकके दो भेद हैं-एक नियत विपाक, दूसरा अनियत विपाक।
बौद्धदर्शनमें कर्मके भेद कई प्रकारसे गिनाये हैं । यथा-सुखवेदनीय, दुःखवेदनीय, न दुःखसुखवेदनीय तथा कुशल, अकुशल और अव्याकृत । दोनोंका आशय एक ही है-जो सुखका अनुभव कराये, जो दुःखका अनुभव कराये और जो न दुःखका और न सुखका अनुभव कराये। प्रथम तीन भेदोंके भी दो भेद हैंएक नियत, दूसरा अनियत । नियतके तीन भेद है-दृष्टधर्मवेदनीय, उपपद्यवेदनीय और अपरपर्याय
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