Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
१७
आशय यह है कि जीवकी प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाको निमित्त करके जो पुदगल कर्म परमाणु जीवकी ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेषका निमित्त पाकर उससे बँध जाते हैं उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूधकी तरह अच्छा या बुरा करनेकी शक्ति होती है जो चैतन्य के सम्बन्धसे व्यक्त होकर उसपर अपना प्रभाव डालती है तथा उससे प्रभावित हुआ जीव ऐसे कार्य करता है जो उसे सुखदायक या दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीवके भाव अच्छे होते हैं तो बँधनेवाले कर्म परमाणुओं पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है और कालान्तरमें अच्छा फल मिलने में निमित्त होते हैं। यदि भाव बुरे होते हैं तो उसका प्रभाव भी बुरा पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा मिलता है । अतः जीवको फल भोगने में परतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं है । यदि ईश्वरको फलदाता माना जाता है तो जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्यका घात करता है तब घातकको दोषका भागो नहीं होना चाहिए; क्योंकि उस मनुष्यके द्वारा ईश्वरने मरनेवालेको मृत्युका दण्ड दिया है। जैसे राजा जिन व्यक्तियोंके द्वारा अपराधियोंको दण्ड देता है वे व्यक्ति अपराधी नहीं माने जाते; क्योंकि वे राजाकी आज्ञाका पालन करते हैं । उसी तरह किसीका घात करनेवाला भी जिसका घात करता है उसके पूर्वकृत कर्मो का फल भुगताता है क्योंकि ईश्वरने उसके पूर्वकृत कर्मोकी यही सजा नियत की, तभी तो उसका वध हुआ । यदि कहा जाये कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अतः घातकका कार्य ईश्वरप्रेरित नहीं है किन्तु उसकी स्वतन्त्र इच्छाका परिणाम है, तो कहना होगा कि संसारदशा में कोई भी प्राणी वास्तव में स्वतन्त्र नहीं है सभी अपने-अपने कर्मोसे बंधे हैं । महाभारतमें भी लिखा है- 'कर्मणा बध्यते जन्तुः ।' प्राणी कर्मसे बंधता है । और कर्मको परम्परा अनादि है । ऐसी परिस्थिति में 'बुद्धिः कर्मानुसारिणी' अर्थात् प्राणियों की बुद्धि कर्मके अनुसार होती है, इस न्यायके अनुसार किसी भी कामको करने या न करने में मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । इसपर से यह आशंका होती है कि ऐसी दशा में तो कोई भी जोव मुक्तिलाभ नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्मसे बँधा है और कर्मके अनुसार atait बुद्धि होती है । किन्तु ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्योंकि कर्म अच्छे भी होते हैं और बुरे भी । अतः अच्छे कर्मका अनुसरण करनेवाली बुद्धि मनुष्यको सन्मार्गकी ओर ले जाती है और बुरे कर्मका अनुसरण करनेवाली बुद्धि मनुष्यको कुमार्गकी ओर ले जाती है । सन्मार्गपर चलने से क्रमशः मुक्तिलाभ और कुमार्गपर चलने से कुगति लाभ होता है । अस्तु,
जब उक्त प्रकारसे जीव कर्म करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र नही है तब घातकका घातनरूप कर्म उसकी दुर्बुद्धिका ही परिणाम कहा जायेगा, और बुद्धिकी दुष्टता उसके किसी पूर्वकृत कर्मका फल होना चाहिए । किन्तु जब हम कर्मका फल ईश्वराधीन मानते हैं तो उसका प्रेरक ईश्वरको ही कहा जायेगा ।
किन्तु यदि हम ईश्वरको फलदाता न मानकर जीवके कर्मोंमें ही स्वतः फलदानकी शक्ति मान लेते हैं तो उक्त समस्या हल हो जाती है। क्योंकि मनुष्यके पूर्वकृत बुरे कर्म उसकी आत्मापर इस प्रकारके संस्कार डाल देते हैं जिससे वह क्रुद्ध होकर हत्या तक कर बैठता है ।
किन्तु ईश्वरको फलदाता माननेपर हमारी विचार-शक्ति कहती है कि किसी विचारशील फलदाताको किसी व्यक्तिके बुरे कर्मका फल ऐसा देना चाहिए जो उसकी सजाके रूपमें हो, न कि दूसरोंको उसके द्वारा सजा दिलवानेके रूपमें । उक्त घटनामें ईश्वर घातकसे दूसरेका घात कराता है; क्योंकि उसे उसके द्वारा दूसरेको सजा दिलानी है । किन्तु घातककी जिस दुर्बुद्धिके कारण वह परका घात करता है उस बुद्धिको दुष्ट करनेवाले कर्मोंका उसे क्या फल मिला । अतः ईश्वरको कर्मफलदाता माननेमें इसी तरह अन्य भी अनेक अनुपपत्तियां खड़ी होती हैं । जिनमें से एक इस प्रकार है
किसी कर्मका फल हमें तत्काल मिल जाता है, किसीका कुछ माह बाद मिलता है, किसौका कुछ वर्ष बाद मिलता है, और किसीका इस जन्ममें नहीं मिलता । इसका क्या कारण है ? कर्मफलके भोग में यह समयकी विषमता क्यों देखी जाती है । ईश्वरेच्छा के सिवाय इसका कोई सन्तोषजनक समाधान
प्रस्ता०-३
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