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गाथा समयसार
( १६ )
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ॥ साधुपुरुष को दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए और उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो ।
( १७ - १८ )
जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ।। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो । अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।।
'यह नृपति है' - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ॥ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए ।
अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए || जिसप्रकार कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर उसकी श्रद्धा करता है और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, उसकी लगन से सेवा करता है।
उसीप्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुषों को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए और फिर उसका श्रद्धान करना चाहिए, उसके बाद उसी का अनुचरण करना चाहिए; अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय हो जाना चाहिए ।
( १९ ) कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं 1 जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।।