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गाथा समयसार
जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ॥
श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा । श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ॥ जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली | सब ज्ञान ही है आर्तमा बस इसलिए श्रुतकेवली ॥
जो जीव श्रुतज्ञान के द्वारा केवल एक शुद्धात्मा को जानते हैं, उसे लोक के ज्ञाता ऋषिगण निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं ।
जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, उन्हें जिनदेव व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं; क्योंकि सब ज्ञान आत्मा ही तो है ।
( ११ ) ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हबदि जीवो ॥
शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे ॥ 'व्यवहारनय अभूतार्थ है, शुद्धनय भूतार्थ है ' - ऐसा कहा गया है । जो भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है । ( १२ ) सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।। परमभाव को जो प्राप्त हैं वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं। जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ।।
जो
शुद्धय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान - चारित्रवान हो गये हैं, उन्हें शुद्धात्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जाननेयोग्य है और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं, श्रद्धा - ज्ञान -चारित्र के पूर्णभाव