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गाथा समयसार
नहीं करता; तथापि परस्पर निमित्त से दोनों के परिणाम होते हैं - ऐसा जानो।
इसकारण आत्मा अपने भावों का कर्ता है, परन्तु पौद्गलिककर्मों के द्वारा किये गये समस्त भावों का कर्ता नहीं है।
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(८३)
णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि। वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।।
हे भव्यजन ! तुम जान लो परमार्थ से यह आतमा । निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता। निश्चयनय का ऐसा कहना है कि यह आत्मा अपने को ही करता है और अपने को ही भोगता है - हे शिष्य ! ऐसा तू जान।
(८४-८५) .. ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं । तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।। जदिपोग्गलकम्ममिणं कुव्वदितं चेव वेदयदि आदा। दोकिरियावदिरित्तो पसज्जदे सो जिणावमदं।
अनेक विध पुद्गल करम को करे भोगे आतमा। व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यातमा ।। पुद्गल करम को करे भोगे जगत में यदि आतमा।
द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हो सम्मत न जो जिनधर्म में ।। व्यवहारनय का यह मत है कि आत्मा अनेकप्रकार के पुद्गलकर्मों को करता है और उन्हीं अनेकप्रकार के पुद्गलकर्मों को भोगता है।
यदि आत्मा पुद्गलकर्म को करे और उसी को भोगे तो वह आत्मा अपनी और पुद्गलकर्म की दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरे; जो कि जिनदेव को सम्मत नहीं है।