Book Title: Gatha Samaysara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 72
________________ निर्जराधिकार (२१७) बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स। संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो। बंध-भोग-निमित्त में अर देह में संसार में। सद्ज्ञानियों को राग होता नहीं अध्यवसान में| बंध और उपभोग के निमित्तभूत संसारसंबंधी और देहसंबंधी अध्यवसान के उदयों में ज्ञानी को राग उत्पन्न नहीं होता। (२१८-२१९) णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं ।। अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ।। पंकगत ज्यों कनक निर्मल कर्मगत त्यों ज्ञानिजन। राग विरहित कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं। पंकगत ज्यों लोह त्यों ही कर्मगत अज्ञानिजन। रक्त हों परद्रव्य में अर कर्मरज से लिप्त हों। जिसप्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ भी सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता; उसीप्रकार सर्व द्रव्यों के प्रति राग छोड़नेवाला ज्ञानी कर्मों के मध्य में रहा हुआ भी कर्मरज से लिप्त नहीं होता। जिसप्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ लोहा कीचड़ से लिप्त हो जाता है; उसीप्रकार सर्वद्रव्यों के प्रति रागी और कर्मरज के मध्य स्थित अज्ञानी कर्मरज से लिप्त हो जाता है। (२२० से २२३) भुंजंतस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे । संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो कादं ।।

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