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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
जबतक यह आत्मा प्रकृति के निमित्त से उपजना-विनशना नहीं छोड़ता; तबतक वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, असंयत है।
जब यह आत्मा अनंत कर्मफल छोड़ता है; तब वह ज्ञायक है, ज्ञानी है, दर्शक है, मुनि है और विमुक्त है अर्थात् बंध से रहित है।
(३१६) अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि। णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि। प्रकृतिस्वभावस्थित अज्ञजन ही नित्य भोगें कर्मफल। पर नहीं भोगें विज्ञजन वे जानते हैं कर्मफल|| अज्ञानी प्रकृति के स्वभाव में स्थित रहता हुआ कर्मफल को वेदता है, भोगता है और ज्ञानी तो उदय में आये हुए कर्मफल को मात्र जानता है, भोगता नहीं।
. (३१७-३१८) णमुयदि पयडिमभव्वो सुठ्ठ वि अज्झाइदूण सत्थाणि। गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होति । णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि। महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ। गुड़-दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों। त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृति न तजे॥ निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध।
वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए। जिसप्रकार गुड़ से मिश्रित मीठे दूध को पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते; उसीप्रकार शास्त्रों का भलीभाँति अध्ययन करके भी अभव्य जीव प्रकृतिस्वभाव नहीं छोड़ता। -- . -- ...
किन्तु अनेकप्रकार के मीठे-कड़वे कर्मफलों को जानने के कारण निर्वेद (वैसम्य) को प्राप्त ज्ञानी उनका अवेदक ही है।