Book Title: Gatha Samaysara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 104
________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ९७ यदि जीव प्रकृति उभय मिल मिथ्यात्वमय पुद्गल करे । मिथ्यात्व का ॥ फल भोगना होगा उभय को 'उभयकृत यदि जीव प्रकृति ना करें मिथ्यात्वमय पुद्गल दरब। मिथ्यात्वमय पुद्गल सहज, क्या नहीं यह मिथ्या कहो ? || मोहनीयकर्म की मिथ्यात्व नामक कर्मप्रकृति आत्मा को मिथ्यादृष्टि करती है, बनाती है - यदि ऐसा माना जाये तो तुम्हारे मत में अचेतनप्रकृति जीव के मिथ्यात्वभाव की कर्ता हो गई। इसकारण मिथ्यात्वभाव भी अचेतन सिद्ध होगा । अथवा यह जीव पुद्गलद्रव्यरूप मिथ्यात्व को करता है - यदि ऐसा माना जाये तो पुद्गल द्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा, जीव नहीं । अथवा जीव और प्रकृति- दोनों मिलकर पुद्गलद्रव्य को मिथ्यात्वभावरूप करते हैं - यदि ऐसा माना जाये तो जो कार्य दोनों के द्वारा किया गया, उसका फल दोनों को ही भोगना होगा । अथवा पुद्गलद्रव्य को मिथ्यात्वभावरूप न तो प्रकृति करती है और न जीव करता है अर्थात् दोनों में से कोई भी नहीं करता है - यदि ऐसा माना जाये तो पुद्गलद्रव्य स्वभाव से ही मिथ्यात्वभावरूप सिद्ध होगा । क्या यह वास्तव में मिथ्या नहीं है ? इससे यही सिद्ध होता है कि अपने मिथ्यात्वभाव का कर्ता जीव स्वयं ही है। ( ३३२ से ३४४ ) कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं । कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं ।। कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं । कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव ।। कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्ढमहो चावि तिरियलोयं च । कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि ॥

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