Book Title: Gatha Samaysara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 124
________________ ११७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार परद्रव्य का ना ग्रहण हो ना त्याग हो इस जीव के। क्योंकि प्रायोगिक तथा वैससिक स्वयं गुण जीव के| इसलिए यह शुद्धातमा पर जीव और अजीव से। कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता। इसप्रकार जिसका आत्मा अमूर्तिक है, वह वस्तुतः आहारक नहीं है; क्योंकि आहार पुद्गलमय होने से मूर्तिक है। परद्रव्य को न तो छोड़ा जा सकता है और न ही ग्रहण किया जा सकता है; क्योंकि आत्मा के कोई ऐसे ही प्रायोगिक और वैनसिक गुण हैं। इसलिए विशुद्धात्मा जीव और अजीव परद्रव्यों से कुछ भी ग्रहण नहीं करते और न छोड़ते ही हैं। (४०८ से ४११) पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो ति।। ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगंजं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति।। ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि। दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति ।। तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिदे। दसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे ।। ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के। यह लिंग ही है मुक्तिमग यह कहें कतिपय मूदजन ।। पर मुक्तिमग ना लिंग क्योंकि लिंग तज अरिहंत जिन | निज आत्म अरु सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित का सेवन करें। बस इसलिए गृहिलिंग या मुनिलिंग ना मग मुक्ति का। जिनवर कहें बस ज्ञान-दर्शन-चरित ही मग मुक्ति का॥

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