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गाथा समयसार
किंचित्मात्र भी घात नहीं कहा है। तात्पर्य यह है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र के घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात नहीं होता ।
इसप्रकार जो जीव के गुण हैं; वे वस्तुतः परद्रव्य में नहीं हैं; इसलिए सम्यग्दृष्टि का विषयों के प्रति राग नहीं होता ।
और राग-द्वेष-मोह जीव के ही अनन्य परिणाम हैं; इसकारण रागादिक शब्दादि विषयों में नहीं हैं।
(३७२ ) अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ । तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण ॥
गुणोत्पादन द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य नहीं करे। क्योंकि सब ही द्रव्य निज-निज भाव से उत्पन्न हों |
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अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य के गुणों की उत्पत्ति नहीं की जा सकती है; इससे यह सिद्धान्त प्रतिफलित होता है कि सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावं से उत्पन्न होते हैं ।
( ३७३ से ३८२ ) णिंदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि । ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो || पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो । तम्हाण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो ॥ असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं सोदविसयमागदं सद्दं ।। असुहं सुहं व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ॥ असुहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्घ मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंधं ॥