Book Title: Gatha Samaysara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 90
________________ बंधाधिकार ८३ रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा । तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा ॥ राग-द्वेष- कषाय कर्मों के उदय में भाव जो । उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन करे । राग-द्वेष- कषाय कर्मों के उदय में भाव जो । उनरूप परिणत आतमा रागादि का बंधन करे ॥ राग-द्वेष और कषाय कर्मों के होने पर अर्थात् उनके उदय होने पर जो भाव होते हैं; उनरूप परिणमित होता हुआ अज्ञानी रागादि को पुनः पुनः बाँधता है। राग-द्वेष और कषाय कर्मों के होने पर अर्थात् उनके उदय होने पर जो भाव होते हैं; उनरूप परिणमित हुआ आत्मा रागादि को बाँधता है । ( २८३ से २८५ ) अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विष्णेयं । एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा || अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि । एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा || जावं अप्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं । कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो ।। है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी । इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ॥ अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से । इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ॥ द्रवभाव से अत्याग अप्रतिक्रमण होवें जबतलक | तबतलक यह आतमा कर्ता रहे यह जानना || -

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