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गाथा समयसा
( २९१ से २९३ )
जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ।। जह बंधे छेत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं । तह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विमोक्खं ॥ बंधाणं च सहावं वियाणिदं अप्पणो सहावं च । बंधे जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि । । चिन्तवन से बंध के ज्यों बँधे जन ना मुक्त हों। त्यों चिन्तवन से बंध के सब बँधे जीव न मुक्त हों । छेदकर सब बंधनों को बद्धजन ज्यों मुक्त हों । त्यों छेदकर सब बंधनों को बद्धजिय सब मुक्त हों ॥ जो जानकर निजभाव निज में और बंधस्वभाव को । विरक्त हों जो बंध से वे जीव कर्मविमुक्त हों ॥ जिसप्रकार बंधनों से बँधा हुआ पुरुष बंधों का विचार करने से बंधों से मुक्त नहीं होता; उसीप्रकार जीव भी बंधों के विचार करने से मुक्ति को प्राप्त नहीं करता ।
जिसप्रकार बंधनबद्धपुरुष बंधों को छेदकर मुक्त होता है; उसीप्रकार जीव भी बंधों को छेदकर मुक्ति को प्राप्त करता है ।
बंधों के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर जो जीव बंधों के प्रति विरक्त होता है; वह कर्मों से मुक्त होता है। ( २९४ ) जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं । पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ।। जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों। दोनों पृथक् हो जायें प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ॥