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गाथा समयसार
आत्मा जिस भाव को करता है, वह उस भावरूप कर्म का कर्ता होता है । अज्ञानी के वे भाव अज्ञानमय होते हैं और ज्ञानी के ज्ञानमय । अज्ञानी के भाव अज्ञानमय होने से अज्ञानी कर्मों को करता है और ज्ञानी के भाव ज्ञानमय होने से ज्ञानी कर्मों को नहीं करता । ( १२८ - १२९ )
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो । जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया ।। अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो । जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ।।
ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों सब ज्ञानमय । बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय || अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों अज्ञानमय । बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ॥ क्योंकि ज्ञानमय भाव में से ज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते हैं; इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव ज्ञानमय ही होते हैं।
क्योंकि अज्ञानमय भाव में से अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते हैं; इसलिए अज्ञानियों के सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं। ( १३० - १३१ )
कणयमया भावादो जायंते कुण्डलादओ भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ।। अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते । णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति ।। स्वर्णनिर्मित कुण्डलादि स्वर्णमय ही हों लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ।। इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय । इस ही तरह सब भाव हों सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ॥
सदा ।