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गाथा समयसार
नहीं होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है। यदि ऐसा माना जाये कि जीव पुद्गलद्रव्यों को कर्मभाव से परिणमाता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं नहीं परिणमती हुई उन कार्मणवर्गणाओं को चेतन आत्मा कैसे परिणमन करा सकता है ?
यदि ऐसा माना जाये कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है तो जीवकर्म (पुद्गलद्रव्य) को कर्मरूप परिणमन कराता है - यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। अत: ऐसा जानो कि जिसप्रकार नियम से कर्मरूप (कर्ता के कार्यरूप) परिणमित पुद्गलद्रव्य कर्म ही है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादिरूप परिणत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि ही है।
(१२१ से १२५) ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि।। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।। पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं । तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो॥ अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।। कोहुवजुत्तो कोहो माणवजुत्तो य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।।
यदि स्वयं ही ना बँधे अर क्रोधादिमय परिणत न हो। तो अपरिणामी सिद्ध होगा जीव तेरे मत विषे॥ स्वयं ही क्रोधादि में यदि जीव ना हो परिणमित । तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति। यदि परिणमावे कर्म जड़ क्रोधादि में इस जीव को। पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को॥