Book Title: Gatha Samaysara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Smarak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ ४४ -गाथा समयसार बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ॥ जिसप्रकार लोहे की बेड़ी के समान ही सोने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है; उसीप्रकार अशुभकर्म के समान ही शुभकर्म भी जीव को बाँधता है । इसलिए इन दोनों कुशीलों के साथ राग और संसर्ग मत करो; क्योंकि कुशील के साथ राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता का नाश होता है । जिसप्रकार कोई पुरुष कुशील पुरुष को जानकर उसके साथ राग करना और संसर्ग करना छोड़ देता है; उसीप्रकार स्वभाव में रत पुरुष कर्म प्रकृति के कुत्सितशील (कुशल) को जानकर संसर्ग करना छोड़ देते हैं। ( १५० ) रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधें कर्म को । जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥ रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है; यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, इसलिए कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) से राग मत करो। ( १५१ ) परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी । तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥ परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली । इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ॥ जो निश्चय से परमार्थ (परम पदार्थ) है, समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है; उस स्वभाव में स्थित मुनिजन निर्वाण को प्राप्त होते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130