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पुण्य-पापाधिकार
(१५२-१५३) परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि। तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्ह । वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विदंति॥
परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें। सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।। व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें।
पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें। परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है; उसके उन सभी तप और व्रतों को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।
जो परमार्थ से बाह्य हैं; वे व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी, शील और तप को करते हुए भी निर्वाण को प्राप्त नहीं करते।
(१५४) परमट्टबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसारगमणहे, पि मोक्खहे, अजाणंता॥ परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते।
अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ॥ जो जीव परमार्थ से बाह्य हैं, वे मोक्ष के वास्तविक हेतु को न जानते हुए अज्ञान से संसार गमन का हेतु होने पर भी मोक्ष का हेतु समझकर पुण्य को चाहते हैं।
(१५५) जीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।।
जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। रागादि का परिहार चारित – यही मुक्तिमार्ग है।