Book Title: Gatha Samaysara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 66
________________ निर्जराधिकार ज्यों अरुचिपूर्वक मद्य पीकर मत्त जन होते नहीं । त्यों अरुचि से उपभोग करते ज्ञानिजन बँधते नहीं || जिसप्रकार वैद्यपुरुष विष को भोगता अर्थात् खाता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता; उसीप्रकार ज्ञानी पुरुष पुद्गलकर्म के उदय को भोगता हुआ भी बँधता नहीं है । ५९ जिसप्रकार कोई पुरुष मदिरा को अरतिभाव (अप्रीति) से पीता हुआ मतवाला नहीं होता; उसीप्रकार ज्ञानी भी द्रव्य के उपभोग के प्रति अरत वर्तता हुआ बंध को प्राप्त नहीं होता । ( १९७ ) सेवतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि ।। ज्यों प्रकरणगत चेष्टा करें पर प्राकरणिक नहीं बनें । त्यों ज्ञानिजन सेवन करें पर विषय सेवक नहीं बनें ॥ जिसप्रकार किसी व्यक्ति के किसी प्रकरण की चेष्टा होने पर भी वह प्राकरणिक नहीं होता और चेष्टा से रहित व्यक्ति प्राकरणिक होता है; उसीप्रकार कोई व्यक्ति विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवक नहीं होता है और कोई व्यक्ति सेवन नहीं करता हुआ भी सेवक होता है । ( १९८ से २०० ) उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं । ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ।। पोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो । ण दु एस मज्ज भावो जाणगभावो ह अहमेक्को । हु एवं सम्माद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं । उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ।। उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर कहें। किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ।

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