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निर्जराधिकार ( १९३ )
उवभोगमिंदियेहिं
दव्वाणमचेदणाणमिदराणं ।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। चेतन अचेतन द्रव्य का उपभोग सम्यग्दृष्टि जन । जो इन्द्रियों से करें वह सब निर्जरा का हेतु है । सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा चेतन-अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सभी निर्जरा का निमित्त है ।
( १९४ ) दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा । तं सुदुक्खमुदिणं वेददि अध णिज्जरं जादि ।। सुख-दुख नियम से हों सदा परद्रव्य के उपभोग से । अर भोगने के बाद सुख-दुख निर्जरा को प्राप्त हों ।। परद्रव्य का उपभोग होने पर सुख अथवा दुःख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उन सुख-दुःखों का अनुभव होने के बाद वे सुखदुःख निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं।
( १९५-१९६ )
जह विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भंजुदि णेव बज्झदे णाणी ।। जह मज्जं पिबमाणो अरदीभावेण मज्जदि ण पुरिसो । दव्ववभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव ।।
ज्यों वैद्यजन मरते नहीं हैं जहर के उपभोग से । त्यों ज्ञानिजन बँधते नहीं हैं कर्म के उपभोग से ||