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-गाथा समयसार
बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ॥
जिसप्रकार लोहे की बेड़ी के समान ही सोने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है; उसीप्रकार अशुभकर्म के समान ही शुभकर्म भी जीव को बाँधता है ।
इसलिए इन दोनों कुशीलों के साथ राग और संसर्ग मत करो; क्योंकि कुशील के साथ राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता का नाश होता है ।
जिसप्रकार कोई पुरुष कुशील पुरुष को जानकर उसके साथ राग करना और संसर्ग करना छोड़ देता है; उसीप्रकार स्वभाव में रत पुरुष कर्म प्रकृति के कुत्सितशील (कुशल) को जानकर संसर्ग करना छोड़ देते हैं। ( १५० )
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥
विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधें कर्म को । जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥ रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है; यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, इसलिए कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) से राग मत करो।
( १५१ ) परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी । तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥
परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली । इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ॥
जो निश्चय से परमार्थ (परम पदार्थ) है, समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है; उस स्वभाव में स्थित मुनिजन निर्वाण को प्राप्त होते हैं।