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....गाथा समयसार
___ अन्य कोई लोग तीव्र-मन्द अनुभागगत अध्यवसानों को जीव मानते हैं; दूसरे कोई नोकर्म को जीव मानते हैं। ___ अन्य कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं और कोई तीव्र-मंदतारूप गुणों से भेद को प्राप्त कर्म के अनुभाग को जीव इच्छते हैं, मानते हैं। __ अन्य कोई जीव और कर्म – दोनों के मिले रूप को जीव मानते हैं और कोई अन्य कर्म के संयोग को ही जीव मानते हैं।
इसप्रकार के तथा अन्य भी अनेकप्रकार के दुर्बुद्धि, मिथ्यादृष्टि जीव पर को आत्मा कहते हैं। वे सभी परमार्थवादी, सत्यार्थवादी, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं - ऐसा निश्चयवादियों ने, सत्यार्थवादियों ने, सत्य बोलनेवालों ने कहा है।
(४४) एदे 'सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति ।। ये भाव सब पुद्गल दरव परिणाम से निष्पन्न हैं।
यह कहा है जिनदेव ने 'ये जीव हैं - कैसे कहें। ये पूर्वकथित अध्यवसान आदि सभी भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं - ऐसा केवली भगवान ने कहा है; अत: उन्हें जीव कैसे कहा जा सकता है ?
(४५) अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति । जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।।
अष्टविध सब कर्म पुद्गलमय कहे जिनदेव ने।
सब कर्म का परिणाम दुःखमय यह कहा जिनदेव ने॥ जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि आठों प्रकार के सभी कर्म पुद्गलमय हैं और उनके पकने पर उदय में आनेवाले कर्मों का फल दुःख कहा गया है।