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धर्मशास्त्र का इतिहास पृथिवी पर मंगलवार को हस्त नक्षत्र में अवतरित हुईं, अतः प्रारम्भिक रूप में यह व्रत दशाश्वमेघ पर गंगास्नान, पूजा एवं दान से सम्बन्धित था। आगे चलकर यह किसी भी बड़ी नदी में स्नान करने, अर्घ्य, तिल एवं जल-तर्पण से सम्बन्धित हो गया। अन्य बातों के विस्तार के लिए देखिए काशीखण्ड, त्रिस्थलीसेतु, कृत्यतत्त्व (४३१), व्रतराज (पृ० ३५२-३५५), पु० चि० (पृ० १४४-१४५)। आजकल गंगोत्सव अधिकतर कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा एवं गंगा के तट पर अवस्थित ग्रामों एवं नगरों में किया जाता है। वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, नासिक में यह उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यदि ज्येष्ठ में मलमास हो तो उसी मास में इसे किया जाना चाहिए।
ज्येष्ठ की पूर्णिमा (उत्तर में अमावस्या) को सधवा नारियाँ भारत के कतिपय भागों में आजकल भी सावित्री व्रत या वटसावित्री व्रत करती हैं। महाभारत (वन०, अध्याय २९३-२९९) एवं पुराणों (मत्स्य, अध्याय २०८-२१४; स्कन्द०, प्रभासखण्ड, अध्याय १६६; विष्णुधर्मोत्तर (२।३६-४१) में भारतीय नारियों के समक्ष पतिव्रता के आदर्श के रूप में सावित्री की कथा बहुत ही प्रसिद्ध रही है। सावित्री एवं सत्यवान् की कथा बड़ी मार्मिक है और इसका उल्लेख बड़ी सदाशयता के साथ होता रहा है। हेमाद्रि (व्रत, भाग १, पृ० २५८-२७२) ने भविष्योत्तर से प्राप्त ब्रह्मसावित्री व्रत तथा स्कन्द० से वटसावित्री व्रत का उल्लेख किया है। किन्तु प्रथम भाद्रपद में त्रयोदशी से लेकर पूर्णिमा तक तीन दिनों में मनाया जाता है न कि ज्येष्ठ में, और द्वितीय ज्येष्ठ की पूर्णिमा को सधवा द्वारा या पुत्रहीन विधवा द्वारा किया जाता है। व्रतकालविवेक (पृ० २०) ने द्वितीय अर्थात् वटसावित्री व्रत को महासावित्री व्रत कहा है। निर्णयसिन्धु (पृ०१००) ने हेमाद्रि द्वारा उल्लिखित इस व्रत को भाद्रपद में माना है और कहा है कि यह उन दिनों प्रचलित था। व्रतप्रकाश में ब्रह्मसावित्री व्रत का उल्लेख है। किन्तु आज का प्रचलित वटसावित्री व्रत दसवीं शताब्दी के बहुत पहले से सम्पादित होता रहा होगा। अग्नि० (१९४।५-८) ने संक्षेप में एक व्रत का उल्लेख किया है जो तत्त्वों के आधार पर आज के वटसावित्री व्रत के समान ही है। राजमार्तण्ड (१३९४, कृ० र०, पृ० १९२, वर्षक्रियाकौमुदी, पृ० २६०, तिथितत्त्व, पृ० १२१) का कथन है--'ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी को श्रद्धासमन्वित नारियाँ वैधव्य से छुटकारा पाने के लिए सावित्री व्रत करती हैं। दक्षिण में इसका अनुसरण होता है। नि० सि० ने भविष्य के आधार पर कहा है कि यह व्रत अमावास्या को किया जाता है, किन्तु कृत्यतत्त्व (पृ० ४३०) एवं तिथितत्त्व (पृ० १२१) के अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ की पूर्णिमा के उपरान्त कृष्ण चतुर्दशी को होता है।
यदि पूर्णिमा दो दिनों वाली होतो व्रत चतुर्दशी को पूर्णिमा से विद्धा होने की दशा में किया जाना चाहिए। यह व्रत तीन दिनों तक किया जाता है और द्वादशी या त्रयोदशी से आरम्भ किया जाता है। किन्तु यदि चतुर्दशी १८ घटिकाओं की हो और उसके उपरान्त पूर्णिमा आ जाय तो चतुर्दशी को छोड़ दिया जाता है (काल-निर्णय, पृ० ३०१)।
वट की पूजा का सम्बन्ध सम्भवतः इस बात से है कि जब सत्यवान् की मृत्यु की घड़ी आयी तो उसने वट वृक्ष की छाया का आश्रय लिया, उसकी शाखा का सहारा लिया तथा अवरुद्ध श्वास से सावित्री से कहा कि मेरे सिर में पीड़ा है। व्रतराज (३१२-३२०) एवं अन्य मध्य काल के ग्रन्थों में विधि का वर्णन है। 'मैं अपने पति एवं पुत्रों की लम्बी आयु एवं स्वास्थ्य तथा इस लोक एवं परलोक में वैधव्य से मुक्ति के लिए सावित्री व्रत करूँगी' ऐसा कहकर स्त्री इस व्रत का संकल्प करती है। उसे वट के मूल पर जल छिड़कना चाहिए, इसके चारों ओर धागा बांधना चाहिए,
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