Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 458
________________ पुराणों पर परिस्थिति का प्रभाव ४४१ तथा अन्य भोगादिक सामग्री देगा?' पम (१।९।१८१) में आया है कि वित्तशाठ्य के त्याग से पितरों को तृप्ति प्राप्त होती है। मत्स्य (५६।११) में आया है कि कृष्णाष्टमीव्रत में कंजूसी नहीं प्रदर्शित करनी चाहिए। पत्र में आया है कि जो धनवान व्यक्ति एकादशी पर जागर को कंजूसी के साथ मनाता है वह अपना आत्मा खो बैठता है (६३९।२१)। ब्रह्म (१२३।१७४) ने सामान्य रूप से कहा है कि जो व्यक्ति धार्मिक कृत्य वित्तशाठ्य (कृपणता) से करता है वह पातकी है। मनु (३।१४९) ने व्यवस्था दी है कि देवों के सम्मान में किये जाने वाले कृत्य में धार्मिक व्यक्ति को चाहिए कि वह भोजन के लिए निमन्त्रित किये जाने वाले ब्राह्मणों की जांच न करे, किन्तु पितरों के श्राद्ध में ब्राह्मणों की योग्यता (पात्रता) की जांच अवश्य करनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देवपूजा में कोई भी बुलाया जा सकता है। हमें मनु (३।१२८) के सामान्य नियमों पर ध्यान देना चाहिए। देवों या पितरों के कृत्यों में कृत्यकर्ता को चाहिए कि वह श्रोतिय (वेदज्ञ ब्राह्मण) को ही भोजन दे। मनु ने ३११४९ में जो कहा है उसका अर्थ यह है कि देवों के कृत्यों में कल आदि का गम्भीर परीक्षण आवश्यक नहीं है। वाय (८२।२७) में आया है कि गया में ब्राह्मणों के कल. शील, विद्या एवं तप की परीक्षा नहीं की जानी चाहिए। वराह (१६५।५५ एवं ५७) में आया है कि मथुरा के ब्राह्मग देवता के समान हैं, मथुरा का वह ब्राह्मण जो एक वेद-मन्त्र (ऋचा) भी नहीं जानता, अन्य स्थान के उस ब्राह्मण से उत्तम है जो चारों वेवों का ज्ञाता हो।" पद्म एवं स्कन्द (काशीखण्ड ६।५६-५७) में आया है कि तीर्थों पर ब्राह्मणों का परीक्षण नहीं होना चाहिए और मनु का कथन है कि तीर्थों के अनेच्छुक ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए। २ । यह सम्भव है कि वायु, वराह एवं पद्म के उपर्युक्त वचन पश्चात्कालीन क्षेपक हों। जब बौद्ध धर्म अपनी पराकाष्ठा पर था तो बौद्ध साधुओं की लम्बी जमातें लोगों द्वारा भोजन पाती थीं। जब १२ वीं एवं १३ वीं शतियों के उपरान्त बौद्धधर्म भारत से विलुप्त हो गया तो लोगों में एक विश्वास भर गया था कि दरिद्र ब्राह्मणों को भोजन देना पुण्य कार्य है, जैसा कि पूर्व काल में बौद्ध साधुओं को खिलाया जाता था, और पुराणों ने केवल सामान्य जनता के मनोभावों को ही व्यक्त कर दिया। उन दिनों सामान्य जनता में ऐसा विश्वास भर गया था, नहीं तो क्षेपकों के आ जाने से ही लोग वैसा न करते। पश्चिम एवं पूर्व के लेखक, १९ वीं एवं २० शती में प्रचलित धारणाओं पर आधारित हो पुराणों में व्यवस्थित ब्राह्मणों के लिए बने नियमों के विरुद्ध अति कठोर एवं अपरिमित निन्दा-सूत्र कह डालते हैं, ऐसा करके वे एक सहन या अधिक वर्षों पूर्वप्रणीत पुराणों के लेखकों के प्रति अन्याय करते हैं। ऐसे लेखकों को मध्यकालीन दशाओं, विचारों एवं ब्राह्मणों के कर्मों की तुलना उन पोपों, ईसाई पादरियों, २९. वित्तशाठ्येन रहितः पितृभ्यः प्रीतिमाहरन्। पप (२९।१८१); धनवान् वित्तशाठ्येन यः करोति प्रजागरम् । तेनात्मा हारितो नूनं कितवेन दुरात्मना ॥ पथ (६।३९।२१)। ३०, वित्तशाठ्येन यो धर्म करोति स तु पातकी। ब्रह्म (१२३।१७४)। ३१. न विचार्य कुलं शीलं विद्या च तप एव च। पूजितस्तैस्तु राजेन्द्र मुक्ति प्राप्नोति मानवः॥ वायु (८२॥ २७); अनुग् वै मायुरो यत्र चतुर्वेदस्तथापरः। वेवश्चतुभिर्न च स्यान्मायुरेण समः क्वचित् ॥... मथुरायां ये वसन्ति विष्णुरूपा हि ते नराः॥ वराह (१६५।५५ एवं ५७)। ३२. तीर्थेष ब्राह्मणं नैव परीक्षेत कथंचन । अन्नार्थिनमनुप्राप्त भोज्यं तं मनुरब्रवीत् ॥ पल ५।२९।२१२। प्रा० क्रि० को० ने प्रथम अर्षाली को ब्रह्म (पृ० ३४) एवं देवीपुराण (पृ० २६६) से उबृत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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