Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 524
________________ उक्त कारणों की पृष्ठभूमि और निष्कर्ष ५०७ सुख की उपलब्धि सम्भव थी । कामनाओं के त्याग की भावना ने मानव समाज की स्थिरता एवं लगातार चलते रहने की प्रक्रिया पर प्रभाव डाला और लोगों में क्रमशः शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का ह्रास दृष्टिगोचर होगे लगा तथा प्रमाद, अनैतिकता एवं जातिगत आत्महनन की भावना घर करने लगी। मनु ( ३।७७-७८, ६।८९-९० ), वसिष्ठधर्मसूत्र (८।१४-१७), विष्णुधर्मसूत्र ( ५९।२९ ), दक्ष ( २।५७-६० ) तथा जन्य ऋषियों एवं लेखकों ने गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना है । महाभारत (शान्ति० २७०।६- ११ ) एवं रामायण ( अयोध्या ० १०६ । २ ) एवं पुराणों ने भी यही बात कही है। केवल धर्मशास्त्रों ने ही नहीं, प्रत्युत कालिदास जैसे कवियों ने भी समाज में गृहस्थाश्रम को सर्वोच्च महत्त्व दिया है। रघुवंश ( ५1१० ) में राजा रघु ने एक विद्वान् ब्राह्मण विद्यार्थी से कहा है- 'अब यही समय है कि आप दूसरे आश्रम में प्रवेश करें, जो अन्य आश्रमों (में रहने वाले व्यक्तियों) के लिए उपयोगी है । शाकुन्तल ( १ ) में भी यही बात पायी जाती है । जब बुद्ध परमात्मा के रूप में बौद्धों द्वारा पूजित होने लगे, जब बौद्धों ने इसी जीवन में स्वार्थभरी कामनाओं के त्याग एवं अष्टांगिक मार्ग के अनुसरण द्वारा साध्य निर्वाण प्राप्ति के मौलिक सिद्धान्त का बहिष्कार कर दिया, जब बौद्धों ने भक्ति के सिद्धान्त को अपना लिया और उन्होंने सुकृत्यों के फलस्वरूप बोधिसत्त्वों के सतत विकास के सिद्धान्त को अपना लिया, तब हिन्दू एवं बौद्ध के बीच की दूरी कम हो गयी और क्रमशः समाप्त-सी हो गयी। इसी मौलिक सिद्धान्त से हट जाने के कारण बौद्ध धर्म भारत से तिरोहित हो गया । ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म को बहुत विस्तृत कर दिया, उन्होंने आश्रमिक आदर्शवाद, बहुत-से देवों की पूजा, वैदिक तथा अन्य धार्मिक क्रियाओं ( यथा कर्ममार्ग ) को उच्चतर आध्यात्मिक जीवन के लिए उचित ठहराया और उन्हें मान्यता दी । हिन्दूवाद की अन्तिम विजय यह व्यक्त करती है कि इसके धर्म एवं दर्शन में शक्ति एवं विशालता है, जो कि बौद्ध धर्म की एकपक्षता एवं उसके कतिपय रूपों में नहीं पायी जाती थी और न उसमें मानव-मन की पिपासा को शान्त करने की शक्ति थी, क्योंकि वह ( बौद्ध धर्म ) इन बातों में मूक था । पुराणों एवं धर्मशास्त्रों ने अहिंसा पर इतना बल दिया कि भारत के लाखों व्यक्ति कट्टर निरामिषभोजी हो गये; कट्टर निरामिषता न केवल ब्राह्मणों में ही पायी गयी, प्रत्युत वैश्यों एवं शूद्रों में भी फैल गयी, जब कि आज के कतिपय बौद्ध देशों में बौद्ध लोग निरामिषमोजी नहीं हैं। बौद्ध धर्म ने जो आदर्श उपस्थित किये वे सभी देशों के बौद्धों के लिए आज प्रयास के विषय ( कष्टसाध्य ) मात्र हैं। बुद्ध ने पशु-यज्ञों के विरोध में अभियान किया, अशोक ने पशु-पक्षी के प्रति की जाने वाली निर्ममता के विरोध में नियम एवं अनुशासन घोषित किये, तब भी यह देखने में आया कि भारतीय राजाओं ने ईसा के पूर्व एवं उपरान्त कई शतियों तक वैदिक यज्ञ ( पशु-यज्ञ भी) किये। कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं - (१) सेनापति पुष्यमित्र (लगभग १५० ई० पू० ) ने दो अश्वमेघ यज्ञ किये (एपि० इण्डिका, जिल्द २२, पृ० ५४-५८), हरिवंश ( ३।२।३५ ) में आया है कि सेनानी काश्यप-द्विज ने कलियुग में अश्वमेघ यज्ञ किया, कालिदास के मालविकाग्निमित्र (अंक ५) में राजसूय यज्ञ किये जाने का उल्लेख है । (२) कलिंग के जैन राजा खारवेल ने अपने शासन के ६ठे वर्ष में राजसूय यज्ञ किया (एपि० इण्डि०, जिल्द २०, पृ०७९) । (३) मारशिव वंश के भवनाग ने (लगभग २०० ई०) दस अश्वमेघ यज्ञ किये (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, सं० ५५, सं० २३६-२३७; वाकाटक रुद्रसेन द्वितीय की धर्मपत्नी प्रभावती गुप्ता के लेख में भी इसका उल्लेख है) । (४) वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन प्रथम ( लगभग २५० ई०) भवनाग का दौहित्र एवं चार अश्वमेघों का सम्पादनकर्ता कहा गया है (एपि० इण्डिका, जिल्द १५, पृ० ३९ ) । (५) गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ( लगभग ३२५-३७० ई०) बहुत काल से छूटे हुए अश्वमेघ को पुनः करने वाला कहा गया है (देखिए बिल्स द प्रस्तर-लेख, गुप्त इंस्क्रिप्शंस, सं० १०, पृ० ४२, स्कन्दगुप्त का विहार स्तम्भ लेख, वही, संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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