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धर्मशास्त्र का इतिहास १२, पृ० ५१)। (६) पल्लवराज शिवस्कन्दवर्मा (लगभग ३००-३५० ई०) को अग्निष्टोम, वाजपेय एवं अश्वमेध करने वाला कहा गया है (एपि० इं०, जिल्द १, पृ० २)। (७) पल्लवराज सिंहवर्मा भी अश्वमेधकर्ता कहा गया है (एपि० इं०,जिल्द ८, पृ० १५९)। (८) चालुक्यराज पुलकेशी प्रथम (लगभग ५७० ई०) ने अश्वमेध यज्ञ किया (ऐहोल शिलालेख, एपि० इ०, जिल्द ६, पृ० १)। (९) चालुक्यराज पुलकेशी द्वितीय ने भी अश्वमेध यज्ञ किया (वही, जिल्द ६, पृ० १, जिल्द ९, पृ० ९८)। (१०) विष्णुकुण्डी माधववर्मा (वाकाटक कुल के एक सम्बन्धी) ने ११ अश्वमेध, एक सहस्र अग्निष्टोम, पौण्डरीक, पुरुषमेध, वाजपेय, षोडशी एवं राजसूय यज्ञ (लगभग ७ वीं या ८ वीं शती में) किये। यह सम्भव है कि यह मात्र गर्व का द्योतक (अत्युक्ति) हो।
यह द्रष्टव्य है कि विद्वान् ब्राह्मण भी कभी-कभी विस्तार के साथ वैदिक यज्ञ करते थे। उदाहरणार्थ, भवभूति से पहले की पांचवीं पीढ़ी में दक्षिणापथ के पद्मपुर में उनके पूर्व-पुरुष ने वाजपेय यज्ञ किया था। वाजपेय में १७ संख्या के अनेक वर्ग होते थे और उसमें १७ पशुओं की बलि होती थी। भवभूति ८ वीं शती के पूर्वार्ध में हुए थे अत: उनसे पूर्व की पांचवीं पीढ़ी में लगभग सौ वर्ष पूर्व अर्थात् ७ वीं शती के पूर्वार्ध में उनके पूर्व-पुरुष ने वाजपेय यज्ञ किया था। .. आजकल बुद्ध और उनके सिद्धान्तों की प्रशंसा करने का एक फैशन (परिपाटी) हो गया है और साथ-ही-साथ जहाँ बौद्ध धर्म की प्रशंसा में लोग आकाश तक स्वर-गुंजार करते हैं वहीं हिन्दू धर्म की खिल्ली भी उड़ायी जाती है। बुद्ध के मोलिक सिद्धान्तों एवं हिन्दू समाज के वर्तमान व्यवहारों तथा सीमाओं की जो तुलना की जाती है वह गर्हित है। प्रस्तुत लेखक इस प्रवृत्ति का विरोधी है। यदि तुलना करनी ही है तो वह बौद्ध धर्म के पश्चात्कालीन रूपों एवं वर्तमान बौद्ध व्यवहारों को एक ओर रखकर तथा हिन्दू धर्म के आज के रूपों एवं व्यवहारों को दूसरी ओर रखकर की जानी चाहिए। उपनिषदों का दर्शन गौतम बुद्ध के दर्शन की अपेक्षा अधिक स्पष्ट (परिमार्जित) था; उन्होंने अपने दर्शन को उपनिषदों के दर्शन पर ही आधारित किया। यदि हिन्दू धर्म कालान्तर में ह्रास को प्राप्त हो गया और उसने बुरी प्रवृत्तियां अभिव्यंजित की, तो वही स्थिति या उससे भी गयी बीती स्थिति थी पश्चात्कालीन बौद्ध धर्म की। जिस बौद्ध धर्म ने हमें वह भद्र बुद्ध दिया जो मानव था, किन्तु वह आगे चलकर देवता हो गया और उसकी प्रतिमाओं की पूजा होने लगी और लोग उसे एवं उसके धर्म को लेकर इतने उन्मत्त हो गये कि वज्रयान जैसी महाविकृत वृत्तियों को फूलने-फलने का अवसर प्राप्त हो गया। आज के अर्थशास्त्रियों ने बौद्ध धर्म के बारे में जो कुछ कहा है उसके प्रतिकूल कथन में प्रस्तुत लेखक स्वामी विवेकानन्द की उक्तियाँ उद्धृत करना चाहता है, जो पर्याप्त शक्तिशाली एवं न्यायपूर्ण हैं (देखिए 'दि सेजेज़ आव इण्डिया', कम्पलीट वर्कस, जिल्द ३, पृ० २४८-२६८, ७ वाँ संस्करण, १९५३, मायावती, अल्मोड़ा)-"आरम्भिक बौद्धों ने पशुओं के वध के विरोध में आक्रोश प्रकट किया और वेदों के यज्ञों की भर्त्सना की; और ये यज्ञ प्रत्येक घर में होते थे...। इन यज्ञों की परिसमाप्ति हुई और उनके स्थान पर गननचुम्बी मन्दिरों, विशाल उत्सवों एवं भड़कीले पुरोहितों या अन्य उन सभी बातों को, जो आधुनिक समय में दीख रही हैं,
का अवसर प्राप्त हो गया। जब मैं आज के लोगों द्वारा लिखित ग्रन्थों को पढता हूँ तो हँसी आती है. उन्हें यह जानना चाहिए कि बुद्ध ब्राह्मणवादी मूर्तिपूजा के नाशक थे। वे यह नहीं जानते कि बौद्ध धर्म ने भारत में ब्राह्मणवाद प तिपूजा को उत्पन्न किया, ..। इस प्रकार पशुओं के प्रति दया का उपदेश देने पर भी, उदात्त नैतिक धर्म के रहते हुए भी, आत्मा की नित्यता या अनित्यता के विषय में वाद-प्रति-वाद होने पर भी, बौद्ध धर्म का सम्पूर्ण भवन खण्ड-खण्ड होकर ध्वस्त हो गया और वह ध्वंस वास्तव में महादारण था। क्योंकि जुगुप्सित उत्सव, अत्यन्त अश्लील पुस्तकें तथा धर्म के नाम पर अत्यन्त पशुवत् जो रूप सामने आये वे सभी इस भ्रष्टता के परिणाम थे।"
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