Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 523
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास (१०) मुसलमानी कट्टरता एवं उनके भारतीय आक्रमण ने बौद्ध धर्म को अन्तिम धक्का दिया। लगभग १२०० ई० में एवं उसके उपरान्त नालन्दा एवं विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय नष्ट कर डाले गये और अधिक संख्या में निर्दयतापूर्वक भिक्षु मार डाले गये । जो लोग इस प्रकार के संहार से बच गये वे तिब्बत या नेपाल में भाग गये । देखिए एच० एम० इलियट कृत 'हिस्ट्री आव इण्डिया' (जिल्द २, पृ० ३०६) जहाँ बख्तियार खिलजी के अत्याचार का वर्णन है, जो तबाकत-ए-नासिरी से लिया गया है । उसमें लिखा है कि बख्तियार खिलजी अपनी सेना लेकर बिहार गया और वहाँ लूटपाट की, उसके हाथ में प्रभूत सम्पत्ति पड़ी, वहाँ के निवासी अधिकतर ब्राह्मण थे, जिनके सिर मुण्डितथे, ने मार डाले गये, बहुत-सी पुस्तकें पायी गयीं और ऐसा माना गया कि सम्पूर्ण स्थान एक अध्ययन का नगर ( मद्रसा अर्थात् मदरसा ) था । इस वर्णन से प्रकट होता है कि मुण्डित - सिर ब्राह्मण बौद्ध भिक्षु थे । ५०६ ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि बौद्ध भिक्षुओं ने सम्पत्ति का सम्पूर्ण त्याग कर दिया था । देखिए इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द ७, पृ० २५४-२५६, शिलालेख २ एवं ९ ) जहाँ भिक्षु एवं भिक्षुणी दाता के रूप में उल्लिखित हैं, और देखिए कनिंघम का 'भिलसा स्तूप' ( पृ० २३५-२३६) जहाँ बहुत से भिक्षु एवं कुछ भिक्षुणियाँ दाता के रूप में उल्लिखित हैं। आरम्भिक बौद्ध धर्म का साधारण जनता पर जो आकर्षण था, उसका कारण इसके द्वारा प्रचारित आत्मत्याग, अनुशासन, सेवा एवं बलिदान की भावना थी । जब मुसलमानी आक्रमणों से भिक्षुओं का विनाश हो गया तो सामान्य जनता किंकर्तव्यविमूढ हो गयी, वह या तो मुस्लिम हो गयी या हिन्दुओं में समा गयी । यह पूर्व ही कहा जा चुका है कि बुद्ध स्त्रियों को संघ में नहीं रखना चाहते थे, किन्तु अपने परम भक्त आनन्द के बार-बार कहने पर वे झुक गये और भविष्यवाणी की कि यह पवित्र धर्म जो एक सहस्र वर्षों तक चलने वाला था अब उतने वर्षों तक नहीं चलेगा, केवल ५०० वर्षों तक ही रह सकेगा। देखिए चुल्लवग्ग (सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द २२, पृ० ३२५ ) । भिक्षुओं के लिए पातिमोक्ख की २२७ धाराएँ थीं जो मास में दो बार चार भिक्षुओं की सभा में सुनायी जाती थीं और नियमों के उल्लंघन को वहाँ स्वीकार करना पड़ता था । यदि चुल्लवग्ग (सं० बु० ई०, २०, ५० (३३०-३४०) को पढ़ा जाय तो पता चलेगा कि जब बहुत से भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ मठों में एकत्र होते थे तो शालीनता एवं नैतिकता का सामान्य पालन कुछ लोगों के लिए टूट-सा जाता था । प्रारम्भ में भिक्षुओं द्वारा भिक्षुणियों के समक्ष पातिमोक्ख सुनाया जाता था और भिक्षुणियाँ अपने दोषों को भिक्षुओं के समक्ष स्वीकार करती थीं, किन्तु आगे चलकर इस विधि में परिवर्तन हुआ और ऐसा नियम बना कि केवल भिक्षुणियाँ ही अपने लिए ऐसा करेंगी । पृ० ३३३ आया है कि भिक्षुणियाँ आपस में झगड़ पड़ती थीं और मुक्केबाजी करने लगती थीं । पृ० ३३५ में ऐसा उल्लेख है कि कुछ भिक्षु भिक्षुणियों पर गन्दा पानी छोड़ देते थे और कभी-कभी अपने अंगों एवं जाँघों को भिक्षुणियों के समक्ष खोल देते थे । प्रस्तुत लेखक ने ऊपर बौद्ध धर्म के विलोप के मुख्य कारणों का जो लेखा-जोखा उपस्थित किया है वह अधिकांश लोगों के मतों के अनुसार ही है । विभिन्न लेखकों ने अपनी रुचि के अनुसार इनमें कुछ को अति महत्त्वपूर्ण कहा है। ये कारण भारत में बौद्ध धर्म के नाश के मूल में थे, किन्तु प्रस्तुत लेखक के मत से इसका प्रमुख कारण यह था कि भारतीय समाज की अधिक संख्या ने यह अनुभव किया कि बौद्ध धर्म के लेखकों द्वारा जो यह कहा गया और बल दिया गया कि यह संसार दुःख से परिपूर्ण है, सभी कामनाओं को त्याग देना चाहिए और विहारवासी (परिव्राजकीय ) जीवन बिताना चाहिए, वह सामान्य लोगों के लिए बहुत असह्य था, और आश्रमों पर आधारित हिन्दू जीवन ने, जिसमें कर्तव्यों एवं अधिकारों की विशिष्ट व्याख्या थी, विशेषतः गृहस्थाश्रम पर जो इतना बल दिया गया था, लोगों के समक्ष कौटुम्बिक जीवन का ऐसा आदर्श रखा जो अति नियमानुकूल एवं अनुशासित था और उसके द्वारा परमोच्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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