Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 471
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास है-'अग्निहोत्र (पवित्र अग्नियों को रखना), तप, सत्य, वेदाध्ययन, आतिथ्य एवं वैश्वदेव-ये इष्ट हैं; कूप, वापी (बावड़ी), तड़ाग (तालाब) खुदवाना, देवमंदिरों का निर्माण, अभ्यर्थियों को भोजन देना-ये पूर्त नाम से घोषित हैं।६१ अग्निपुराण में भी ऐसी ही बातें हैं। पद्म (६।२४३।१०-१४) ने पूर्तकार्य को यों कहा है-'विष्णु एवं शिव के मन्दिरों, तालाबों, कूपों, कमल-सरोवरों, वटों, पिप्पलों (पीपलों), आमों, कक्कोलों, जामुनों, नीमों के वनों, पुष्प-वाटिका का निर्माण, प्रातः से सायं तक, अन्नदान बस्तियों के बाहर जल-प्रबन्ध आदि।' स्कन्द (१०।२।१०) में आया है ---'धर्मशास्त्रों में 'पूर्त' शब्द का प्रयोग मन्दिरों, तालाबों, बावड़ियों, कूपों एवं वाटिकाओं के निर्माण के अर्थ में हुआ है।' पद्म (६।२४४।३४-३५) का कथन है कि जो लोग मठों, गोशालाओं, मार्गों पर आरामों, साधुयतियों के निवासों, दरिद्रों एवं असहायों के लिए पर्णकुटियों, वेदाध्ययन के लिए विशाल भवन, ब्राह्मणों के लिए गृहों का निर्माण करते हैं, वे इन्द्रलोक (स्वर्ग) में प्रवेश करते हैं। अत्रि का कथन है कि इष्ट एवं पूर्त द्विजों के सामान्य धर्मसाधन हैं, शूद्र पूर्त-धर्म का सम्पादन कर सकता है किन्तु वैदिक कर्म (यज्ञ आदि) का नहीं। और देखिए अनुशासन पर्व (अध्याय ५८)। किन्तु वराहपुराण एवं कुछ स्मृतियों में ऐसा आया है कि इष्ट से केवल स्वर्ग की प्राप्ति होती है किन्तु पूर्त से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।" कभी-कभी हम पुराणों में ऐसी बातें भी पा जाते हैं जिनमें आधुनिकता की गन्ध मिल जाती है, विशेषतः जब वे समाज-सेवा, आर्त जनों के दुःख एवं क्लेश के निवारण आदि के विषय में चर्चा करते हैं। मार्कण्डेय में एक राजा कहता है--'मनुष्य उस सुख को स्वर्ग या ब्रह्मलोक में नहीं पाते जिसे वे आर्त जनों को आश्रय या सहायता देकर प्राप्त करते हैं। यज्ञों, दानों एवं तपों से यहाँ तथा परलोक में उस व्यक्ति को कोई सहारा नहीं प्राप्त हो सकता जिसका मन आर्त जनों के परित्राण में नहीं लगा हो।'६५ विष्णुपुराण ने कहा है--‘मतिमान् को विचार, शब्द एवं ६१. अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चैव साधनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवं च इष्टमित्यभिधीयते ॥ वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमर्थिभ्यः पूर्तमित्यभिधीयते॥ मार्कण्डेय (१६॥१२३-१२४)। अग्नि (२०९।२-३) ने 'चानुपालने', 'च प्राहुरिष्टं च नाकदम्', 'अन्नप्रदानमारामाः पूर्त धर्म च मुक्तिदम्' का पाठान्तर दिया है। 'वापीकूपतडागानि...'को अपरार्क (पृ० २४,२९०) ने महाभारत से उद्धृत किया है। उपर्युक्त दोनों अत्रिसंहिता (४२-४४) में भी हैं। ६२. सुरालयसरोवापीकूपारामादिकल्पना। एतदर्थ हि पूख्यिा धर्मशास्त्रेषु निश्चिता ॥ स्कन्द (१०२।१०)। ६३. इष्टापूतौं द्विजातीनां सामान्यौ धर्मसाधनौ । अधिकारी भवेच्छूद्रः पूर्ते धर्मे न वैदिके ॥ अत्रि (४६)। अपरार्क (पृ० २४) ने इसे जातूकर्ण्य का माना है। और देखिए अपरार्क (पृ० २९०) जहाँ नारद से इष्ट एवं पूर्त के विषय में उदाहरण दिये गये हैं। ६४. इष्टापूर्त द्विजातीनां प्रथमं धर्मसाधनम् । इष्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षं च विन्दति ॥ वराह (१७२-३३), यमस्मृति (६८), अत्रिसंहिता (१४५)। ६५. न स्वर्गे ब्रह्मलोके वा तत्सुखं प्राप्यते नरैः। यदातजन्तुनिर्वाणदानोमिति मे मतिः॥ यज्ञदानतपांसीह परत्र च न भूतये । भवन्ति तस्य यस्यातपरित्राणे न मानसम् ॥ मार्कण्डेय (१५।५७ एवं ६२); प्राणिनामुपकाराय ययवेह परत्र च । कर्मणा मनसा वाचा तदेव मतिमान् वदेत् ॥ विष्णु ३।१२।४५; परोपकरणं येषां जागति हृदये सताम् । नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ॥ तीर्थस्नानैर्न सा शुद्धिर्बहुदानैर्न तत्फलम् । तपोभिरुग्रैस्तनाप्यमुपकृत्य यवाप्यते ॥ परिनिर्मथ्य वाग्जालं निर्णीतमिदमेव हि । नोपकारात् परो धर्मो नापकारादघं परम् ॥ स्कन्द (काशीखण्ड, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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