Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 477
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ४६० का इस पर भाष्य (जीवानन्द, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित, १८७६) एवं कोवेल द्वारा इन दोनों का अंग्रेजी अनुवाद (१८७८); शाण्डिल्यसंहिता ( भक्तिखण्ड ) जो अनन्तशास्त्री फड़के द्वारा सरस्वती भवन सीरीज में सम्पादित है ( १९३५ ) ; नारदभक्तिसूत्र, अंग्रेजी अनुवाद, नन्दलाल सिंह द्वारा ( पाणिनि आफिस, इलाहाबाद, १९११ ) ; नारद-पांचरात्र (ज्ञानामृतसार विभाग के साथ ) ११ अध्यायों में, अंग्रेजी अनुवाद, स्वामी विजयानन्द (वही, १९२१ ) ; सर आर० जी मण्डारकर का 'वैष्णविज्म शैविज्म आदि' (१९१३ ) ; दास गुप्त की 'हिस्ट्री आव इण्डियन फिलॉसॉफी' (जिल्द ४, १९४९), जहाँ इन्होंने भागवतपुराण एवं मध्व, वल्लभ, चैतन्य एवं उनके अन्य अनुयायियों के सिद्धान्तों का उल्लेख किया है; ग्रियर्सन का लेख 'ग्लीनिंग्स फ्राम भक्तमाला अब नाभादास' (जे० आर० ए० एस० १९०९, पृ० ६०७-६४४); डकन ग्रीनलेस कृत 'हिस्ट्री आव श्रीवैष्णवाज़' (अडयार, १९५१ ) ; नारदभक्तिसूत्र ( मूल, अनुवाद एवं टिप्पणी, स्वामी त्यागीशानन्द, रामकृष्ण मठ, मेलापुर, मद्रास, १९४३, जो ५ अध्यायों एवं ८४ सूत्रों में है ) ; पंचरात्र एवं अहिर्बुध्न्य-संहिता पर डा० ओटो श्रेडर की भूमिका ( अडयार, १९१६ ) ; अहिर्बुध्न्य-संहिता (दो जिल्दों में, अडयार, १९१६); जयाख्य-संहिता, संस्कृत एवं अंग्रेजी भूमिका के साथ (गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज़, १९३१ ) ; परमसंहिता ( गायकवाड़ ओ० सी०, १९४६, डा० एस० के० आयंगर कृत अंग्रेजी भूमिका ) ; नारद-पांचरात्र की बृहद्ब्रह्मसंहिता ( आनन्दाश्रम सीरीज़, १९१२ ) ; नारायणतीर्थ - कृत भक्तिचन्द्रिका ( शाण्डिल्य के भक्तिसूत्र की टीका) जो सरस्वती भवन सीरीज़ में है ( १९१२ एवं १९३८ ) ; मित्र मिश्र का भक्तिप्रकाश ( चौखम्बा सीरीज़, १९३४); अनन्तदेव का भक्तिनिर्णय ( पं० अनन्तशास्त्री फड़के द्वारा सम्पादित, बनारस, १९३७) । दक्षिण भारत में भक्ति साहित्य बहुत अधिक है, यथा आळवारों के स्तोत्र, किन्तु कतिपय कारणों से इसकी ओर निर्देश नहीं किया जा रहा है। पुराणोक्त भक्ति के स्वरूप के विषय में चर्चा करने के पूर्व 'भक्ति' एवं 'भागवत' शब्दों की व्याख्या संक्षेप में आवश्यक है। शाण्डिल्य ने भक्ति की परिभाषा ( सा परानुरक्तिरीश्वरे) की है", जो दो प्रकार से व्याख्यायित (डकन कालेज संस्करण, १९५६ ) । रामानुज ने वेदान्तसूत्र ( २।२।४१ एवं ४५ ) के भाष्य में पौष्करसंहिता, सात्वतसंहिता एवं परमसंहिता को पाञ्चरात्र संहिताओं में परिगणित किया है, किन्तु कहीं भी उन्होंने यह नहीं अंगीकार किया है कि वे पञ्चरात्र सिद्धान्त के अनुयायी हैं। भागवत पर बहुत-सी टीकाएँ और टीकाओं पर बहुत-सी टीकाएँ हैं (वास गुप्त ने जिल्द ४, पृ० १-२ में भागवत की ४० टीकाओं की सूची दी है) । यहाँ पर मध्व एवं अन्य बड़े वैष्णव आचार्यों के शिष्यों एवं अनुयायियों की बहुत-सी टीकाओं की ओर संकेत करना अनावश्यक है । वल्लभाचार्य (१४७९-१५३१ ई०) के अनुसार सन्देह की स्थिति में भागवत परम प्रमाण है (वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि व्याससूत्राणि चैव हि । समाधिभाषा व्यासस्य प्रमाणं तच्चतुष्टयम् । उत्तरं पूर्वसन्देहवा रकं परिकीर्तितम् ॥ तत्त्व निबन्ध, अहमदाबाद, १९२६); और देखिए प्रो० जी० एच्० भट्ट (इण्डि० हिस्टा० क्वा०, जिल्व ९,३००० ३०६) । वल्लभाचार्य का पुष्टिमार्ग (जिसका अर्थ है कृष्णानुग्रह) है और उनका कथन है कि कलियुग में भक्ति की प्राप्ति भी कठिन है । ७५. अथातो भक्तिजिज्ञासा । सा परानुरक्तिरीश्वरे । शाण्डिल्य ( १|१|१ - २); स्वप्नेश्वर ने यह टीका की है -- 'आराध्य विषयक रागत्वमेव सा । इह तु परमेश्वरविषयकान्तःकरणवृत्तिविशेष एव भक्तिः ।' जिस श्लोक को आधार माना गया है वह यह है--' या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥' विष्णुपु० (१।२०१९) । स्वप्मेश्वर ने गीता उद्धृत की है--' मच्चित्ता सद्गतप्राणा बोषयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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