Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 497
________________ ४८. धर्मशास्त्र का इतिहास . "इस प्रकार वेद को समझने पर जो प्रकट होता है वह कौन गुप्त अर्थ है अर्थात् वह कौन गोपनीय (अलौकिक या गूढ) रहस्य छिपा हुआ है ? . . . वह विचार जिस पर सब कुछ केन्द्रित है, वह है सत्य, प्रकाश, अमरता की खोज। बाह्य रूप से प्रकट होने वाले सत्य से बढ़कर गूढ़ एवं उच्च वह सत्य है, वह प्रकाश मनुष्य की समझ से बन कर बड़ा एवं उच्च है, जो ऐशोन्मेष एवं प्रबोधन से प्राप्त होता है, और वह अमरता वह है जिसके लिए आत्मा को उठना है (जागना है)। हमें उसके लिए मार्ग ढूंढ़ना है, इस सत्य एवं अमरता के संस्पर्श को प्राप्त करना है।" यह एक महान् उपसंहार है, किन्तु यह सब कच्ची एवं कम्पित होने वाली नींव पर आधृत है, क्योंकि यहाँ 'ऋत एवं 'चित्' के ग़लत अर्थों का सहारा लिया गया है। श्री कपाली शास्त्री (पृ० ४६) ने अपने गुरु के इस निष्कर्ष को ज्यों-का-त्यों रख दिया है। श्री शास्त्री महोदय ने (पृष्ठ २२।२६) सायण के विरोध में निन्दात्मक लेख लिखा है, किन्तु अन्त में उन्हें यह (पृ० २७-२८) मानना पड़ा है कि सायण वेद के पाठकों के लिए न केवल उपयोगी हैं, प्रत्युत अपरिहार्य हैं। पृ० २३ पर उन्होंने जैमिनि का सूत्र अनुदित किया है-'वेद का उद्देश्य क्रिया-संस्कार के लिए है, वे शब्द जिनका सम्बन्ध इससे नहीं हैं, व्यर्थ है', और कहा है कि इससे यह स्पष्ट व्यवस्था झलकती है कि वेद का एकमात्र उद्देश्य है क्रिया-संस्कार-विधि, जो इससे सम्पर्क नहीं रखते (अर्थात् विधि या क्रिया-संस्कार से सम्पर्क नहीं रखते) वे मन्त्र निरर्थक हैं। प्रस्तुत लेखक को ज्ञात होता है कि श्री शास्त्री महोदय ने पूर्वमीमांसासूत्रों का अध्ययन सावधानी से नहीं किया है और न वस्तुस्थिति का प्रकाशन ही सम्यक् रूप से किया है। उन्होंने जो उद्धृत किया है वह मात्र पूर्वपक्ष है। जैमिनि का प्रसंग यों है 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते।'... 'विधिना त्वेकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थेन विधीनां स्युः।-पू० मी० सू० (११२।१ एवं ७) इस दूसरे सूत्र का अर्थ है-'क्योंकि वे वचन (जो सीधी तौर से क्रिया-संस्कारों अथवा विधि-कर्मों से सम्बंधित नहीं हैं) जो वाक्यरचना के विचार से विधि की व्यवस्था करने वाले वचनों से पूर्णतया (एक रूप से) सम्बन्धित हैं, वे विधियों को मान्यता देने वाले कहे जाते हैं।' श्री शास्त्री यह कहकर सन्तोष नहीं करते कि 'मधुच्छन्द ऋषिगण एवं अन्य मन्त्रद्रष्टा थे, इन प्राचीन द्रष्टाओं के समक्ष देवता उपस्थित थे', प्रत्युत वे और आगे कहते हैं'परोक्ष को देखने वाला सत्य को देखने वाला भी कहा जाता है; अतः कवि--द्रष्टा सत्यश्रुत (कवयः सत्यश्रुतः) हैं, वेद में प्रसिद्ध हैं' (पृ० ६४)। प्रस्तुत लेखक को आश्चर्य है और लगता है कि श्री शास्त्री ने वेद में आये हुए इन वाक्यों को सावधानी से नहीं पढ़ा है जहाँ 'कवयः सत्यश्रुतः' प्रयुक्त हुआ है। 'कविः' एवं 'कवयः' शब्द ऋग्वेद में कई बार आये हैं, किन्तु 'सत्यश्रुतः' केवल तीन बार आया है, यथा ५।५७।८, ५।५८।८ एवं ६।४९।६; ऋ० ५।५७८ तथा ५।५८०८ तो एक ही हैं। ऋ० ५१५७४८ एवं ५।५८।८ में मरुतों को 'कवयः' (विज्ञ या समझदार) एवं 'सत्यश्रुतः' (सत्य पुरस्कार देने में प्रसिद्ध) उपाधियों से सम्बोधित किया गया है, न कि ऋषियों को। ऋ० ६।४९।६ १०९. हये नरोमरतो मुळता नस्तुवीम घासो अमृता ऋतज्ञाः। सत्यश्रुतः कवयो युवानो बहगिरयो बृहतुक माणाः॥ ऋ०५।५७४८ एवं ५।५८१८ पर्जन्यवातावृषभापृथिव्याः पुरीषाणि जिन्वतमप्यानि । सत्यश्रुतः कवयो यस्य गोभिर्जगतः स्थातुर्जगदा कृणुध्वम् ॥ ऋ० ६।४९।६। ५१५७४८ के उत्तरार्ध में 'सत्यश्रुतः कवयः' के साथ और जो शब्द आये हैं वे पूर्वार्ष में मरुतों की उपाधियाँ हैं। ६।४९।६ के उत्तरार्ध में 'सत्यश्रुतः कवयः' सम्बोधन है जैसा कि पदपाठ से प्रकट होता है और मरुतों के लिए सम्बोषित है, जैसा कि ५।५७४८ एवं ५।५८१८ से प्रकट है। 'सत्यश्रुतः कवयः' शब्द वेद के कवियों की ओर, किन्हीं भी तीन कारकों में, संकेत नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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