Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 457
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास कर दिया, छोटे या बड़े, सभी को उच्च आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का अधिकार हो गया। जो व्यक्ति सामाजिक कर्तव्य को समझकर अपना काम करता जाय और सांसारिक फलों के पीछे न पड़े और अपने सभी कर्मों को भगवान् के नाम समर्पित कर दे, वह आध्यात्मिक जीवन की उच्चता का अधिकारी हो जाता है। पद्मपुराण में व्यास ने युधिष्ठिर से कहा है-'कलियुग में मनु द्वारा एवं वेदों द्वारा व्यवस्थित नियमों का पालन असम्भव है। एक कार्य जो सब को करना चाहिए, वह एकादशी-व्रत है जो मास में दो बार किया जाना चाहिए। यह बड़ा सरल है, इसमें अल्प धन लगता है, बहुत कम क्लेश होता है, किन्तु महाफलदायक है, और यह सभी पुराणों का सारभूत है। व्यक्ति को पवित्र होना चाहिए और द्वादशी को पुष्पों से केशव-पूजा के उपरान्त सर्वप्रथम ब्राह्मणों को खिलाकर तब स्वयं खाना चाहिए। जो लोग स्वर्ग-प्राप्ति चाहते हैं, उन्हें ऐसा व्रत जीवन भर करना चाहिए। यहाँ तक कि एकादशी-व्रत करने वाले पापी, दुराचारी एवं धर्मवर्जित लोग भी यमलोक (नरक) नहीं जाते' (पद्म ६।५३।४-९)। सूतसंहिता (१७।२२) में आया है कि 'सत्य ज्ञान (आत्म-ज्ञान) की प्राप्ति का प्रयत्न सभी कर सकते हैं; (संस्कृत के अतिरिक्त) अन्य भाषा द्वारा और अधिक समय के प्रयास से (निम्न श्रेणी के लोगों का) कल्याण ही होगा।' इससे प्रकट होता है कि पुराणों ने सब के समक्ष उन सरल विधियों एवं साधनों को रखा जिनके द्वारा लोग इस लोक के उपरान्त सुन्दर गति प्राप्त कर सकें। ___ बौ० ध० सू० (२।४।३०), मनु (३।२६) एवं वसिष्ठ (११।२८) में आया है कि श्राद्ध में बहुत-से ब्राह्मणों को नहीं आमन्त्रित करना चाहिए, क्योंकि बड़ी संख्या से इन पाँचों की हानि होती है, यथा--अतिथियों का उचित सम्मान, स्थान एवं काल का औचित्य , स्वच्छता तथा योग्य (सुपात्र) ब्राह्मणों की प्राप्ति । अनुशासनपर्व (९०१२) आदि में आया है कि देवों की पूजा में ब्राह्मणों के ज्ञान, वंश एवं चरित्र की परीक्षा का विशेष प्रयास नहीं करना चाहिए, किन्तु पितरों के श्राद्ध में इस प्रकार की परीक्षा न्यायसंगत है। पुराण इन दोनों व्यवस्थाओं के विरोध में जाते हैं। वेश्राद्धकर्म में कृपणता के .बड़े विरोधी हैं। वे नहीं चाहते कि लोग श्राद्ध, एकादशी जैसे व्रतों में कंजूसी प्रकट करें। विष्णुपुराण ने पितरों द्वारा कहे गये ९ श्लोक दिये हैं (३।१४।२२-३०)" जिनमें दो का अनुवाद यहाँ दिया जा रहा है—'क्या वह मतिमान् एवं धन्य व्यक्ति हमारे कुल में जन्म लेगा जो कृपणता (वित्तशाठ्य) न प्रदर्शित कर हमें पिण्ड देगा और यदि वह सम्पत्तिवान है तो क्या हमारे लिए ब्राह्मणों को रत्न, वस्त्र, महायान, धन २६. सत्क्रियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसम्पदः। पञ्चतान विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम् ॥ मनु (३।२६); कूर्मपुराण (२।२२।२७); बौ० ध० सू० (२१४१३०); वसिष्ठ (११।२८)। अन्तिम दो ग्रन्थ चौथे पाद को 'तस्मात्त परिवर्जयेत्' ऐसा पढ़ते हैं। २७. ब्राह्मणान्न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित् । दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्याय्यमाहुः परीक्षणम् ॥ अनुशासनपर्व (९०१२); हे० (श्राद्ध, पृ.० ५११ में उद्धृत); दैवे कर्मणि ब्राह्मणं न परीक्षेत । प्रयत्नात्पित्रये परीक्षेत । विष्णुध० (८२।१-२); न ब्राह्मणान परीक्षेत सवा देये तु मानवः। देवे कर्मणि पिश्ये च श्रूयते वै परीक्षणम् ॥ वायु० (८३३५१)। २८. अपि धन्यः कुले जायादस्माकं मतिमानरः। अकुर्वन वित्तशाठ्यं यः पिण्डानो निर्वपिष्यति ॥ रत्नं वस्त्रं महायानं सर्वभोगादिकं वसु। विभवे सति विप्रेभ्यो योऽस्मानुद्दिश्य दास्यति॥ विष्णु० (३।१४।२२-२३), वराह० (१३।५०-५१ : 'सर्व तोयादिकम्' २४-३०) जो श्राद्धक्रियाकौमुदी द्वारा उद्धृत एवं व्याख्यायित हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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