Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 463
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास कमाने में अपनी शक्ति एवं समय का उपयोग करना पड़ता और वेदाध्ययन आदि कार्य पिछड़ जाता। इन्हीं कारणों से कुछ पुराणों ने ब्राह्मणों को दान देने की बात पर लगातार बल दिया है। । जब अधिकांश पुराण लिखे गये थे उन दिनों ब्राह्मणों के समक्ष भांति-भांति की कठिनाइयां एवं विरोधी शक्तियां उपस्थित थीं। ई० पू० तीसरी शती से लेकर ई० उ० सातवीं शती तक बौद्ध धर्म को अशोक, कनिष्क एवं हर्ष के समान राजाओं का आश्रय प्राप्त था। बौद्ध धर्म वास्तव में जाति के विरोध में क्रान्ति नहीं था, प्रत्युत वह यज्ञ-प्रणाली, वेद एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए वेद के मार्ग के विरुद्ध खड़ा था। बुद्ध ने कोई नवीन धर्म नहीं प्रवर्तित किया, प्रत्युत वे हिन्दू धर्म के एक बड़े सुधारक थे। उन्होंने नैतिक प्रयास, अहिंसा, सत्य आदि पर बहुत बल दिया, जो पहले से ही हिन्दू धर्म में समन्वित हो चके थे और उसके प्रमख अंग बन चुके थे और आज भी उसी प्रकार से बने हुए हैं। बनारस (वाराणसी) के पास सारनाथ में बुद्ध ने जो प्रथम उपदेश दिया, उसमें उन्होंने दो अतिरेकों (निरतिशयों) को छोड़ देने की बात कही, यथा-'विषयों के पीछे पड़ा रहना एवं निरर्थक तपों काव्यवहार', यही मध्यम मार्ग उन्हें सूझ पड़ा था जो उनके ज्ञान एवं निर्वाण का कारण बना।" उन्होंने चार आर्यसत्यानि' (चार सत्यों) की व्याख्या की, यथा-दु:ख, दुःख का कारण, अर्थात् तृष्णा (तण्हा) जिसे दुःख-समुवय भी कहा जाता है, दुःख-निरोष एवं पुःख-निरोपगामिनी पटिपदा, अर्थात् दुःख के निरोध के लिए मार्ग।" अन्तिम को 'अष्टांगिक माग' कहा जाता है, यथा--सम्यक दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म; सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मति, सम्यक् ध्यान। बुद्ध एवं उनके शिष्यों द्वारा ये सिद्धान्त सब के समक्ष रखे गये। ये विशेषतः उन शूद्रों को अधिक प्रभावित करते थे जिनकी सामाजिक स्थिति वैदिक एवं स्मृतियों के कालों में बड़ी ४१. देखिए धम्मचक्क-प्पवतन-सुत्त (धर्म के राज्य का प्रतिष्ठापन), संफ्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्व ११ पृ० १४६। ४२. यह प्रष्टव्य है कि उपनिषदों एवं महाभारत में भी तृष्णा या काम के त्याग पर बल दिया गया है। देखिए- या सर्व प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः। अथ माँ अमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ कठ० (६॥ १४); या कुस्त्यजा दुर्मतिभिर्वा न जीर्यति जीर्यतः। येषा प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ वनपर्व (२३३६), अनुशासनपर्व १२१, ब्रह्माण्ड. ३१६८१००; यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुलम्। तृष्णालयसुखस्यत् कला नाहति षोडशीम् ॥ शान्ति० १७४।४६, वायु ९३३१०१, ब्रह्माण्ड ३१६८१०३। . .. ४३. देखिए धम्मक्कापवत्तन-सुत्त (संकेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द ११, १० १४७, जहाँ 'अष्टांगिको मार्गः पिया हमा है। पालि शब्द ये हैं---सम्मा-विडि, सम्मा-संकल्पो, सम्मा-वाचा, सम्मा-कम्मन्तो, सम्मा-आजीवो, सम्मा-चायामो, सम्मा-सति (सम्यक् स्मृति), सम्मा-समाधि। और देखिए वीघनिकाय (पालि टेक्स्ट सोसायटी) जिल्द १,१.० १५७; महावग्ग (ओल्डेनवर्ग), जिल्द १, पृ०१० (१।६।१८) एवं धम्मचक-यवतम-सुस (सारनाथ की बहिन वजिरा द्वारा सम्पावित, १० ३): दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोष, दुःखविरोधगामिनी पटिपदा के लिए देखिए महावग्म (१।६।१९-२२), वही १० १०॥ये चारों 'आर्यसत्यानि' अर्थात् चार श्रेष्ठ सत्य कहे जाते हैं क्योंकि वे आर्य (बुद्ध) द्वारा प्राप्त हुए थे। योगसूत्रभाष्य में व्याख्यायित चिकित्सा-शास्त्र एवं योग के चार प्रकार के सूत्रों से ये आर्यसत्यानि मिलते हैं : 'यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्दूहम्-रोगो, रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिवमपि शास्त्रं चतुर्दूहमेव, तद्यथा-संसारः, संसारहेतुः, मोक्षः, मोक्षोपायः इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः। प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः। संयोगस्यात्यन्तिको निवृत्तिहनिम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम्। योगभाष्य (योगसूत्र २०१५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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