Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 460
________________ दीन-दुखियों एवं सत्पात्रों को अझ धान ४४३ महाग्रन्थ के खण्ड २ में दान-सम्बन्धी बातों की चर्चा कर दी है। महाभारत ने बहुत-से स्थानों पर ( विशेषत: अनुशासनपर्व में ) एवं पुराणों, यथा मत्स्य (अध्याय ८२ ९२ एवं २७४ - २८९), अग्नि (अध्याय २०८-२१३) वराह ( ९९-१११), पद्म (५।२१।८१-२१३, जो मत्स्य के अध्याय ८३ - ९२ से सर्वथा मिलता है), पद्म ( २।३९-४० एवं ९४, ३३२४), कूर्म ( २।२६) ने दान पर विस्तार के साथ उल्लेख किया है। किन्तु यहाँ हम दान के केवल दो विषयों पर, यथा - भोजन दान एवं ब्राह्मणों को दिये जाने वाले दान पर प्रकाश डालेंगे। ऋग्वेद ऐसे व्यक्ति की भर्त्सना करता है और उसे पापी कहता है जो न तो देवों को भोजन देता है और न अपने मित्रों को, और केवल अपना पेट भरता है ।" ऐत० ब्रा० एवं तै० ब्रा० ने अन्न (भोजन) को प्राण कहा है।" बौ० घ० सू० में आया है - " सभी प्राणी अन्न पर निर्भर रहते हैं, वेद का कथन है कि 'अन्न प्राण है, अतः अन्न दूसरे को देना चाहिए, अन्न सर्वश्रेष्ठ हवि है ।"" मनु एवं वि० घ० सू० में आया है— 'जो केवल अपने लिए भोजन पकाता है (देवों एवं अन्य लोगों के लिए नहीं) वह केवल पाप खाता है। पद्म में बहुत सुन्दर ढंग से एक वचन आया है 'जो लोग सदा लूले लंगड़े, अन्धे, बूढ़े, दुखियों, असहायों तथा दरिद्रों को खिलाते हैं, वे स्वर्ग में सदैव सुख पाते हैं; कूपों एवं तलाबों के निर्माण से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है, जहाँ जलवासी जीव एवं पृथिवी पर विचरण करने वाले पशु इच्छा होने पर जल पीते हैं, क्योंकि जल प्राणियों का जीवन है और प्राण जल में केन्द्रित है ।' ब्रह्म (२१८|१०३२), पद्म (५।१९।२८९ - ३०७ ) एवं अग्नि ( २११।४४-४६ ) में विद्वान् ब्राह्मणों को भोजन (अन्न) बांटने की बड़ी प्रशंसा गायी गयी है । 'सभी दानों में अन्न दान सर्वश्रेष्ठ कहा गया है; अन्न ही मनुष्यों का जीवन है, इसी से सभी जीव उत्पन्न होते हैं; लोक अन्न पर ही निर्भर हैं, इसी से अन्न की प्रशंसा है; अन्न-प्रदान से व्यक्ति स्वर्गप्राप्ति करता है । जो व्यक्ति न्यायपूर्वक प्राप्त किये हुए अन्न को वेदज्ञ ब्राह्मणों को देता है वह सभी पापों से मुक्ति पा जाता है' (ब्रह्म, २१८।१०-१३, २२-२३) । अग्नि का कथन है, 'हाथियों, अश्वों, रथों, पुरुष दासों या नारी दासियों तथा घरों के दान अन्न दान के सोलहवें अंश को ( पुण्य में) भी नहीं पा सकते। वह व्यक्ति जो महापाप कर बैठता है और उसके बाद यदि अन्न दान करता है तो वह पापों से स्वतन्त्र हो जाता है और अक्षय लोकों की प्राप्ति करता है (२११।४४-४६ ) । कूर्म में आया है, 'ब्रह्मचारी को श्रद्धा से प्रतिदिन अन्न देना चाहिए (जब वह भिक्षा माँगने आये), इससे सभी पापों से मुक्ति मिलती है और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है' (२।२६।१७ ) । इसी प्रकार पद्म ( ५।१५।१४०-१४१) में आया है- 'जो व्यक्ति यतियों को पौत्रपूर्ण भिक्षा देता है, वह सभी पापों से विमुक्त हो जाता है और किसी दुर्मति को नहीं पाता।' बहुत प्राचीन कालों से ही गृहस्थ को पंच आह्निक यज्ञ करने पड़ते थे, जिनमें दो थे बलिहरण एवं अतिथि सत्कार ( मनु ३५७० ); उन लोगों के लिए जो जातिच्युत होते थे, पाप- रोगी होते थे तथा चाण्डालों, कुत्तों, कौओं, यहां तक कि कृमियों को भूमि पर भोजन रख दिया जाता था ३५. मोघमनं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वर्ष इत्स तस्य । नायंमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ॥ ऋ० (१०१११७१६) । ३६. अन्नं प्राणमन्नमपानमाहुः । ते० ब्रा० २राटाटा३; अनं ह प्राणः । ऐ० ब्रा० (३३|१) में, जहाँ नारद ने पाँचवीं गाथा कही है। ३७. असे भितानि भूतानि असं प्राणमिति श्रुतिः । तस्मादन्नं प्रदातव्यमत्रं हि परमं हविः ॥ बौ० ० सू० ( २०३६८) । ३८. अयं स केवलं भुंक्ते यः पचत्यात्मकारणात् । मनु ३।११८, विष्णुधर्मसूत्र ६७ ४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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