Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 403
________________ ३८६ धर्मशास्त्र का इतिहास पुराणों के साथ उपपुराण भी हैं। मित्र मिश्रा जैसे लेखक ही ऐसी उक्ति कह सकते हैं, किन्तु उनके मत को स्वीकार करने के लिए हम बाध्य नहीं हो सकते। यह भी सन्देहात्मक है कि याज्ञवल्क्य पुराण शब्द से आज के महापुराणों की ओर संकेत करते हैं या वे यह जानते थे कि उनके काल में इनकी संख्या अठारह थी। यदि कुछ उपपुराण अपने को महापुराणों की भांति ही प्रामाणिक मानें तो यह वैसा ही है जैसा कि महापुराण अपने विषय में कहते हैं कि ब्रह्मा ने सर्वप्रथम पुराणों के विषय में सोचा और तब उनके अधरों से वेदों की उद्भूति हुई। इस प्रकार के आत्मगौरव की बात पर आज के विद्वान् किसी प्रकार का ध्यान नहीं देते। उपपुराण मुनियों एवं ऋषियों के द्वारा ही उत्पन्न हुए। कई महत्त्वपूर्ण बातों में उपपुराण महापुराणों से स्पष्ट रूप से भिन्न हैं। प्रथम बात यह है कि १८ पुराण अर्ध-दैवी विभूति व्यास द्वारा प्रणीत समझे गये हैं; दूसरी बात यह है कि मत्स्य० एवं कूर्म के अनुसार ये (उपपुराण) पुराणों के संक्षेप हैं; तीसरी बात यह है कि उपपुराणों के श्लोक सभी पुराणों के सम्मिलित श्लोकों की संख्या चार लाख में सम्मिलित नहीं हैं; चौथी बात यह है कि आरम्भिक टीकाकार एवं निबन्धकार (यथा मिताक्षरा, कृत्यकल्पतरु) या तो किसी उपपुराण का उल्लेख ही नहीं करते या करते भी हैं तो केवल आधे दर्जन बार और वह भी यदा-कदा; अन्तिम बात यह है, जैसा कि स्वयं प्रो० हज्रा कहते हैं कि विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी, यथा-शाक्त, सौर, पाञ्चरात्र अपने पुराणों में क्षेपक भरते जाते थे और कुछ के विषय में तो इतना कहा जा सकता है कि उन्होंने सर्वथा नये एवं स्वतन्त्र ग्रन्थ लिख डाले, जिनके द्वारा वे अपने विचारों का प्रसार करते थे और उन्हें पुराणों की संज्ञा से विभूषित करते थे। धर्मशास्त्र की प्रारम्भिक टीकाएँ एवं निबन्ध अति प्रसिद्ध उपपुराणों की ओर बहुत ही कम संकेत करते हैं। मिताक्षरा ने, यद्यपि इसने ब्राह्म का नाम लिया है (याज्ञ० ११३ एवं ४५), निम्नोक्त पुराणों से उद्धरण लिया है, मत्स्य (बहुत अधिक), विष्णु (याज्ञ० ३१६), स्कन्द (याज्ञ० ३।२९०), भविष्य (याज्ञ० ३।६), मार्कण्डेय (याज्ञ० १।२३६, २५४, ३।१९, २८७, २८९) एवं ब्रह्माण्ड (याज्ञ० ३।३०) । किन्तु याज्ञवल्क्यस्मृति की इस प्रसिद्ध टीका में कहीं किसी उपपुराण का उल्लेख नहीं है। लक्ष्मीधर के कल्पतरु (१११०-११३० ई० के लगभग प्रणीत) ने महापुराणों के बहुत-से उद्धरण दिये हैं, किन्तु केवल छह उपपुराणों के नाम लिये हैं, यथा--आदि (शुद्धि पर केवल दो बार), नन्दी (दान एवं नियतकालिक पर बहुत-से उद्धरण), आदित्य, कालिका, देवी, नरसिंह (इन सभी चारों के उद्धरण विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में)। अपरार्क (१२ वीं शती के पूर्वार्ध में) ने ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, भविष्यत्, मार्कण्डेय, वायु, विष्णु एवं मत्स्य के उद्धरण दिये हैं, किन्तु नाम से केवल आदि, आदित्य, कालिका, देवी, नन्दी, नृसिंह, विष्णुधर्मोत्तर (सात बार), विष्णुरहस्य (एक बार) एवं शिवधर्मोत्तर (एक बार) को पुकारा है। दानसागर (११६९ ई० में लिखित) में आया है 'उक्तान्युपपुराणानि व्यक्तदानविधीनि च।' अर्थात् 'उपपुराणों का प्रकाशन हुआ है जो दानविधि बताते हैं, और इसमें ये नाम आये हैं---आद्य (आदि या ब्रह्म?), आदित्य, कालिका, नन्दी, नरसिंह, मार्कण्डेय, विष्णुधर्मोत्तर एवं साम्ब । इसमें टिप्पणी आयी है कि विष्णुरहस्य एवं शिवरहस्य केवल संग्रह रूप में हैं। उपपुराणों के विषय में ११७० ई० के उपरान्त के लेखकों की चर्चा अनावश्यक है। लगभग एक दर्जन मुख्य पुराणों में १८ पुराणों की ओर जो संकेत मिलते हैं तथा उनमें कुछ के विषयों का जो उल्लेखन है, उससे स्वभावतः ऐसा अनुमान निकल आता है कि ये वचन (उक्तियाँ) तब जोड़े गये जब सभी अठारह पुराण अपने पूर्ण रूप को प्राप्त हो चुके थे। ऐसा विश्वास करना सम्भव नहीं है कि सभी मुख्य पुराण एक ही व्यक्ति द्वारा एक ही काल में प्रणीत हुए, या एक ही काल में बहुत-से लेखकों द्वारा लिखे गये। इसके अतिरिक्त पुराणों के बहुत-से संस्करण या तो एक ही पाण्डुलिपि पर या अनियमित ढंग से एकत्र की गयी कुछ पाण्डुलिपियों पर आधारित हैं, जैसा कि महाभारत के उस संस्करण के विषय में कहा जा सकता है जो बी० ओ० आर० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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