Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 432
________________ पुराणों एवं उपपुराणों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ ४१५ नरसिंहपुराण ( या नृसिंहपुराण ) -- कल्पतरु ने व्रत पर चर्चा करते हुए इस उपपुराण से २९ श्लोक लिये हैं ( ये श्लोक आज की प्रति में प्राप्त हैं, देखिए २६ । २ - २० ) ; तीर्थ की चर्चा में कल्पतरु ने इससे ६६ लोक लिये जो इसके अध्याय ६५।२-२१ में हैं। इसी प्रकार कल्पतरु ने नियतकाल पर ६५, मोक्ष पर ५७, दानकाण्ड पर १३, ब्रह्मचारिकाण्ड पर ४ श्लोक उद्धृत किये हैं । अपरार्क ने भी इस उपपुराण से प्रभूत उद्धरण देकर इसे मान्यता दी है । स्मृति ने भी इसे उद्धृत किया है। लगता है, कल्पतरु एवं अपरार्क के समय इसका आकार बड़ा था। यह द्रष्टव्य कि ऐल वंश का अन्तिम राजा क्षेमक इस पुराण में नरवाहन का पुत्र एवं उदयन तथा वासवदत्ता का पौत्र कहा गया है । आज जो प्रति प्राप्त है उसकी तिथि लगभग नवीं शती है । नारदपुराण ( वेंक० प्रेस द्वारा प्रकाशित ) -- देखिए ह० ( इण्डि० कल्चर, जिल्द ३, पृ० ४७७-४८८, स्टडीज, जिल्द १, पृ० ३०९-३४५, 'बृहन्नारदीय' एवं 'नारदीय' आदि ) । बृहन्नारदीय का प्रकाशन कलकत्ता एशियाटिक सोसाइटी एवं बंगवासी प्रेस द्वारा ३८ अध्यायों एवं ३६०० श्लोकों में हुआ है। ह० के अनुसार बृहन्नारदीय एक कट्टर वैष्णव साम्प्रदायिक कृति है और इसमें पुराण की विशेषताओं का अभाव है। ह० ने यह भी कहा है कि मत्स्य (५३।२३) द्वारा अवलोकित ( जिसमें २३००० श्लोक थे और जिसमें नारद ने बृहत्कल्प के धर्मों की घोषणा की है) एवं अग्नि ( २७२।८) द्वारा उल्लिखित नारदीय आज के नारदीय से भिन्न था और आज वाले नारदीय ने बृहन्नारदीय से बहुत कुछ उधार लिया है ( स्टडीज़, जिल्द १, पृ० ३३६-३४१) । वेंक० प्रेस द्वारा प्रकाशित संस्करण दो भागों में विभक्त है, प्रथम १२५ अध्यायों में है और द्वितीय ८२ अध्यायों में (कुल लगभग ५५१३ श्लोकों में ) । द्वितीय भाग के ५५१३ श्लोकों में ३४०० तीर्थों से सम्बन्धित हैं और शेष रुक्मांगद एवं मोहिनी की गाथा से सम्बन्धित हैं। प्रथम भाग में विष्णु एवं भक्ति की प्रशंसा, भारत का भूगोल, सगर की कथा, भगीरथ एवं गंगा-माहात्म्य, कुछ व्रतों, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, पातकों, सदाचार एवं श्राद्ध जैसे विषयों का उल्लेख है । नारदीय का एक श्लोक (१।९।४० ) किरातार्जुनीय श्लोक' से मिलता है और घोषणा करता है कि यदि कोई ब्राह्मण महान् विपत्ति में भी बौद्ध मन्दिर में प्रवेश करता है तो वह सैकड़ों प्रायश्चित्तों के उपरान्त भी इस पाप से छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि बौद्ध पाषण्डी और वेदविनिन्दक हैं। प्रथम भाग में वैष्णवागम ( ३७, ४) एवं पंचरात्र - विधि ( ५३1९ ) का वर्णन है । स्मृतिच० ने नारदीय से एकादशी एवं मोहिनी- गाथा के विषय में कई श्लोक उद्धृत किये हैं । अपरार्क ने एकादशी के उपवास के विषय में दो श्लोक उद्धृत किये हैं । उपर्युक्त दशाओं से यह स्पष्ट होता है कि आज का नारदीयपुराण, ७०० एवं १००० ई० के बीच कभी संगृहीत हुआ । पद्मपुराण - - ह० ( इण्डि० कल्चर, जिल्द ४, पृ० ७३-९५), श्री एम० वी० वैद्य (काणे - मेट-जिल्द, पृ० ५३०५३७, यहाँ ऐसा मत व्यक्त किया गया है कि पद्म का तीर्थयात्रा वाला विभाग महाभारत- तीर्थयात्रा विभाग से प्राचीन है), डा० वेल्वेल्कर (एफ० डब्लू० फेस्टक्रिफ्ट, पृ० १९-२८) का कथन है कि पद्म महाभारत पर आधारित है । प्रो० लूडर्स ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि पद्म में उल्लिखित ऋष्यश्रृंग की वार्ता महाभारत वाली वार्ता से प्राचीन है (इण्डि० हिस्ट्रा ० क्वा०, जिल्द २०, पृ० २०९, जहाँ लूडर्स का मत दिया हुआ है) । ह० ने 'स्टडीज़ इन पुराणिक ३. अविवेको हि सर्वाषामापदां परमं पदम् । नारदीय ( १ ९१५० ) ; मिलाइए 'सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।' किरात० २।३० । . बौद्धाः ४. बौद्धालयं विशेद्यस्तु महापद्यपि वै द्विजः । न तस्य निष्कृतिर्दृष्टा प्रायश्चित्तशतैरपि पाखण्डिनः प्रोक्ताः यतो वेदविनिन्दिकाः ॥ नारदीय ( १।१५।५०-५२ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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