Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 448
________________ कर्मकाण्ड को अपेक्षा पुराणों की आत्म-प्रशंसा ४३१ पुराण वेद से अपनी वरीयता अथवा श्रेष्ठपदता (कभी-कभी बराबरी) घोषित करते हैं। मत्स्य (५३।३-११), पद्म (५।११४५-५२), ब्रह्म (२४५।४), विष्णुपु० (३।६।२०), देवीभागवत (११३१३) आदि में आया है कि ब्रह्मा ने सब शास्त्रों के पूर्व पुराणों के विषय में सोचा और तब वेद उनके अधरों से टपके। बहुत-से पुराण वेद के समान मत) कहे गये हैं, यथा-वायु (११११,४।१२), ब्रह्म (१।२९, २४५। ४ एवं २१), विष्णु (१।१।१३, ६१८ १२), पद्म ६।२८२।११६ कतिपय पुराण देवों द्वारा कहे गये माने गये हैं, यथा ब्रह्मा (ब्रह्मपुराण १।३०), वायु (वायु १।१९६)। कुछ पुराण विष्णु के अवतारों द्वारा कहे गये हैं, यथा मत्य (१।२६) या वराह (२।१-३)। वेद के वचनों के जप से सभी पाप कट जाते हैं, इसी प्रकार पुराणों के पठन या श्रवण या पाठ से सभी पाप कट जाते हैं (वायु १०३१५८; मत्स्य २९०।२०; विष्णु ६॥११८१३ एवं १२)। कुछ पुराणों ने अपनी प्रशंसा करने में अतिशयोक्ति कर दी है, यथा-वराहपुराण (२१७।१२-१३, २१७।१५-१६) में आया है कि इस पुराण के दस अध्यायों के पढ़ने से वही फल प्राप्त होता है, जो अग्निष्टोम एवं अतिरात्र यज्ञों के सम्पादन से। और देखिए ब्रह्म (२५४॥ ३४-३५), अग्नि (३८४११३-३०) एवं देवीभागवत (१२।१३।११-१७) । इतना ही नहीं, पुराण वैदिक यज्ञों से बढ़कर तीर्थ यात्राओं, व्रतों, भक्ति आदि को मानते हैं। पद्म (११३८।२ एवं १८) में आया है कि केवल गया जाने या फल्गु में स्नान कर लेने से वही फल प्राप्त होता है, जो अश्वमेध यज्ञ करने से होता है। स्कन्द (११२।१३।५९-६०) में आया है, 'वेदोक्त यज्ञिय कृत्यों का कोई उपयोग नहीं देखा जाता, उनमें कोई जीवन नहीं है, वे अविद्या के अन्तर्गत हैं और उनसे हिंसा होती है। यदि (यज्ञ का) सम्पादन ईधन (समिधा) जैसे निर्जीव पदार्थों से होता है, पुष्पों एवं कुशों से होता है तो फल भी वैसा ही होगा, क्योंकि कर्म कारण पर निर्भर रहता है।' देखिए शान्तिपर्व (३३७) जहाँ मुनियों एवं देवों में अन्न या बकरी के मांस की आहतियों के विषय में चर्चा हई है। ऋ देवों के यज्ञों में मांस की आहुतियाँ दी जाती थीं, किन्तु कहीं-कहीं ऐसे संकेत मिलते हैं कि उस काल में घृत एवं समिधा की आहुतियों से वही फल मिलता था जो पशु-मांस की आहुतियों से घोषित था-'जो कोई अग्नि के लिए से या घत की आहुति से या वेद मन्त्र से या नमित होकर अच्छा यज्ञ करता है, उसी के लिए द्रतगामी घोड़े दौड़ते हैं और उसका ही यश अत्यन्त द्युतिमान होता है; उसके पास देवों या मनुष्यों द्वारा किसी भी दिशा से कोई अनिष्ट नहीं पहुँचता' (ऋ० ८।१९।५-६) । एक दूसरा मन्त्र भी है-'हे अग्नि, हम आपके पास अपने हृदय से उत्पन्न ऋक्-मन्त्र के साथ आहुति देते हैं। वे ऋचाएँ आपके यहाँ बैल या साँड़ या गाय हों (ऋ० ६।१६।५७)। वेद एवं यज्ञों के विषय में कतिपय उपनिषदों में पायी जाने वाली मनोवृत्ति पुराणों में भी लक्षित होती है, यथा मुण्डकोपनिषद् में आया है-'व्यक्ति को दो विद्याएँ जाननी चाहिए : परा (उच्चतर) एवं अपरा (निम्नतर); अपरा में चारों वेद, शिक्षा, कल्प (पवित्र यज्ञों वाले सूत्र), व्याकरण, छन्द, ज्योतिष सम्मिलित हैं; परा में वह है जिसके द्वारा अक्षर (न मिटने वाली, वास्तविक सत्ता अथवा तत्त्व) का ज्ञान होता है' (१।११४-५) । इसी उपनिषद् में अपरा विद्या की भर्त्स ।। भी है--ये यज्ञ अदृढ (चूने वाली) नौकाओं के समान हैं जिनमें १८ (व्यक्ति) हैं, जिन पर वे घोषित कर्म निर्भर रहते हैं जो अवर हैं; वे मूर्ख व्यक्ति जो इन कर्मों को सर्वोत्तम समझ अपनाते हैं, पुनः वृद्धा एकतश्चतुरो वेदा भारतं चैतदेकतः। पुरा कल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम् ॥ चतुर्व्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिक यदा। तवाप्रभृति लोकेस्मिन्महाभारतमुच्यते ॥ आदिपर्व (१।२७१-२७३)। ८. पुराणं संप्रवक्ष्यामि ब्रह्मोक्तं वेदसंमितम् । वायु ११११; गुरुं प्रणम्य वक्ष्यामि पुराणं वेदसंमितम् । ब्रह्म १।२९; पुराणं नारदोपाख्यमेतद्ववार्थसंमितम् । नारदीय ११११३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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