Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 366
________________ अद्भुत, उत्पात, दुर्निमितों को शान्ति ३४९ जाती है; जब यज्ञिय स्तम्भ से अंकुर निकल आते हैं; जब दिन में उल्कापात होता है; जब घूमकेतु अंधकार उत्पन्न कर देता है; जब बार-बार उल्कापात होता है; जब चोंच में मांस लेकर पक्षी किसी के घर पर उतरता है; जब बिना अग्नि के प्रकाश फूटने लगता है; जब अग्नि फूत्कार करने लगती है; जहाँ घृत, तेल, मधु टपकने लगता है; जब ग्रामाग्नि से कोई घर जल जाता है; जब दुर्घटना से किसी का घर जल जाता है; जब बाँस स्वर निकालने लगते हैं; जब जलाशय में पात्र फूट जाता है या बटलोही फूट जाती है या यवयुक्त पात्र फूट जाता है। स्थानाभाव से उपर्युक्त अद्भुतों की शान्तियों का विवेचन यहाँ सम्भव नहीं है। दो-एक उदाहरण पर्याप्त होंगे। जब भूचाल हो तो पाँच मन्त्रों के साथ घृत की आहुतियाँ दी जानी चाहिए, इनमें तीन जिष्णु (विष्णु) के विषय में हैं और इस प्रकार हैं- "जिस प्रकार सूर्य स्वर्ग में ज्योतिर्मान् है, वायु आकाश में है, अग्नि पृथिवी में प्रवेश करती है, उसी प्रकार यह जिष्णु अटल एवं स्थिर रहे । जिस प्रकार सरिताएँ रात-दिन अपने तत्त्व (मिट्टी, कीचड़ आदि ) को समुद्र में डालती हैं, उसी प्रकार ( देवों के ) सभी वर्ग, एक मन होकर मेरे आवाहन (यज्ञ) में आयें; देवी पृथिवी सभी देवों के साथ मेरे लिए स्थिर हो, वह सभी दुष्टताओं को भगा दे और उन शत्रुओं को, जो मुझसे घृणा करते हैं, चीर-फाड़ डाले ।" 'स्वाहा' शब्द के साथ आहुतियाँ देकर उसे अथर्व ० ( ६ ८७ १, ६ ८८१ ) के मन्त्रों और अथर्व ० ( १२।१।२) के अनुवाक के पाठ के साथ आहुतियाँ देनी चाहिए । यही प्रायश्चित्त है ( भूचाल के विषय में ) । देखिए कौशिकसूत्र (अध्याय ९८ ) । और देखिए वही, अध्याय ९९ एवं १०० जहाँ क्रम से सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण सम्बन्धी शान्तियों का वर्णन है । और शान्तियों को 'अद्भुत शान्तियों के सम्बन्ध में अद्भुत, उत्पात एवं निमित्त नामक तीन शब्दों को भली भाँति समझ लेना चाहिए । 'अद्भुत' प्राचीन शब्द है । ऋग्वेद में कई बार प्रयुक्त हुआ है और किसी देवता के लिए 'आश्चर्ययुक्त' के अर्थ में आया है । कहीं-कहीं यह 'भविष्य' एवं सम्भवतः 'औत्पातिक' के अर्थ में भी आया है निरुक्त (१14 ) के अनुसार ऋ० (१।१७०1१ ) की व्याख्या इस प्रकार है— 'ऋषि अगस्त्य ने सर्वप्रथम इन्द्र को हवि देने का वचन दिया, किन्तु आगे चलकर उन्होंने वही मरुतों के लिए करना चाहा, इस पर इन्द्र ने अगस्त्य के पास आकर विरोध किया कि जो आज वचन दिया गया, वह नहीं है, और न वह कल भी होगा, कौन जाने, भविष्य में क्या होगा ।" यास्क ने 'अद्भुत' का अन्वय 'अ-भूत' (जो अभी नहीं घटित हुआ है) से किया है और कहा है कि सामान्य भाषा में अद्भुत का अर्थ यह भी है 'वह जो अभी घटित नहीं हुआ है ।' गृह्यसूत्रों में 'अद्भुत' शब्द ही आया है शान्तियाँ' कहा गया है। अद्भुत न केवल मूचालों, ग्रहणों, धूमकेतुओं, उल्कापातों आदि के लिए प्रयुक्त हुआ है, प्रत्युत यह असाधारण घटनाओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ है, यथा गाय द्वारा रक्त दूध देना, गाय द्वारा गाय का थन पीना आदि । वृद्ध-गर्ग ने 'अद्भुत' को ऐसी घटना समझा है, जो पहले न हुई हो ( अर्थात् अपूर्व) अथवा जो पहले हुई हो, किन्तु उससे पूर्ण रूपेण परिवर्तित दूसरी घटना हो जाय । ६७ वाँ आथर्वण परिशिष्ट 'अद्भुत शान्ति' कहा जाता है । इसने अद्भुतों को सात दलों में बाँटा है -- इन्द्र, वरुण, यम, अग्नि, कुबेर, विष्णु एवं वायु और प्रत्येक के कुछ अद्भुत के नाम लिखे हैं, यथा रात्रि में इन्द्रधनुष ( इन्द्र ), गिद्ध ( गृद्ध ) या उल्लू का घर पर उतरना या कपोत का घर में प्रवेश (यम), बिना अग्नि का धुवाँ (अग्नि), किसी के जन्म के नक्षत्र पर ग्रहण (विष्णु) । परिशिष्ट सामवेद के अद्भुत उसके ब्राह्मण पर आधारित हैं । ८. निरुक्त ( ११५ ) : 'अगस्त्य इन्द्राय हविनिरुप्य मरुद्द्भ्यः संप्रदित्सांचकार स इन्द्र एत्य परिदेवयांचक्रे । न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद्वेद यदद्भुतम् । अन्यस्य चितमभिसंचरेण्यमुताधीतं विनश्यति ॥ ( ऋ० १।१७०११) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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