Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 4
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 199
________________ १८२ धर्मशास्त्र का इतिहास मार्गशीर्ष की प्रथम तिथि से किया, ऋषि काश्यप ने कश्मीर नामक सुन्दर देश की रचना की; अतः इस पर उत्सव किया जाना चाहिए ( कृत्यरत्नाकर ४५२ ) ; मार्गशीर्ष शुक्ल १२ पर उपवास करना चाहिए और ऐसा ही वर्षभर करते रहना चाहिए; प्रत्येक द्वादशी पर विष्णु के केशव से ले कर दामोदर के बारह नामों में एक नाम लेना चाहिए और पूजा करनी चाहिए; कर्ता जातिस्मर ( जो पूर्व जन्मों के कृत्यों को स्मरण कर लेता है) हो जाता है और वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ से लौटना नहीं होता (अनुशासनपर्व अध्याय १०९; बृहत्संहिता १०४।१४-१६: मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर विशेषतः चन्द्र की पूजा की जानी चाहिए, क्योंकि उसी समय चन्द्र पर अमृत छिड़का गया था; गाय को नमक देना चाहिए; माँ, बहन, पुत्री तथा अन्य नारी सम्बन्धियों को नवीन वस्त्रों का जोड़ा देना चाहिए; नृत्य-गान का उत्सव होना चाहिए, जो लोग मंदिरा का सेवन करते हैं, उन्हें उस दिन ताजी मदिरा ग्रहण करनी चाहिए; कृत्यकल्पतरु ( नैयत्कालिक, ४३२-४३३); कृत्यरत्नाकर ( ४७१-४७२ ) मार्गशीर्ष; पूर्णिमा पर दत्तात्रेय जयन्ती की जाती है, देखिए ऊपर । मार्तण्ड सप्तमी : पौष शुक्ल ७ से आरम्भ ; उस दिन उपवास; 'मार्तण्ड' नाम लेते हुए सूर्य-पूजा; अपने को शुद्ध करने के लिए कर्ता को गोमूत्र या गोबर या दही या दूध ग्रहण करना चाहिए; दूसरे दिन 'रवि' नाम पर सूर्य पूजा; इसी प्रकार वर्ष भर प्रत्येक मास में दो दिनों की विधि तथा एक दिन एक गाय को घास आदि खिलाना ; सूय-लोक की प्राप्ति; भविष्यपुराण (१।१०९/१ - १३ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ७५४-७५५), कृत्यकल्पतरु (नैयत्कालिक काण्ड, १४७-१४८) । मसव्रत : मार्गशीर्ष से कार्तिक तक १२ मासों में कर्ता को निम्नलिखित का दान करना चाहिएलवण घी, तिल, सात धान्य, रंगीन एवं सुन्दर वस्त्र, गेहूँ, जलपूर्णपात्र, कर्पूर के साथ चन्दन लेप, नवनीन, छत्र, शक्कर या गुड़ से भरपूर लड्डू एवं दीप; अन्त में गोदान तथा दुर्गा, ब्रह्म, सूर्य या विष्णु की पूजा; हेमाद्रि ( व्रत० २, ८५३ - ८५४, देवीपुराण से उद्धरण ) ; कृत्यरत्नाकर (४४२-४४३)। मासव्रतानि : अग्निपुराण ( १९८ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४१८-४३२ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० २, ७४४७९९); दानसागर (५८९-६२१) । मासोपनासव्रत : सभी व्रतों में यह सर्वोत्तम व्रत है। यह एक अति प्राचीन व्रत है। ई० पू० दूसरी शती में रानी नायनिका ( नागनिका) ने इसे सम्पादित किया था ( ए० एस० डब्ल्यू० आई०, जिल्द ५, पृ० ६० ) ; इसका वर्णन अग्नि० (२०४११-१८), गरुड़० (१।१२२1१-७), पद्म० (६।१२१११५-५४ ) में किया गया है। अग्निपुराण अति संक्षिप्त है, उसी को अति संक्षिप्त रूप में यहाँ दिया जा रहा है । कर्ता को सभी वैष्णव व्रत (यथा-द्वादशी) कर लेने चाहिए, गुरु का आदेश ले लेना चाहिए; अपनी शक्ति को देख कर आश्विन शुक्ल ११ से आरम्भ कर उसे ३० दिनों तक ले जाने का संकल्प करना चाहिए; किसी वानप्रस्थ व्यक्ति या यति या विषया द्वारा यह सम्पादित होना चाहिए; पुष्पों आदि से प्रति दिन तीन बार विष्णु-पूजा होनी चाहिए; विष्णु की प्रशस्ति गान गाये जाने चाहिए, विष्णु ध्यान करना चाहिए; व्यर्थ की ( इधर-उधर की बातों का त्याग होना चाहिए; धन की इच्छा का त्याग करना चाहिए; जो नियमों का पालन नहीं करते उन्हें नहीं छूना चाहिए; मंदिर में ३० दिनों तक रहना चाहिए; ३० दिनों के उपरान्त १२ वें दिन ब्रह्मभोज देना चाहिए, दक्षिणा देनी चाहिए तथा १३ ब्राह्मणों को आमन्त्रित कर पारण करना चाहिए, वस्त्रों का जोड़ा, आसन, पात्र, छत्र, खड़ाऊ दान-रूप में दिये, जाने चाहिए; एक पलंग पर विष्णु की स्वर्ण - प्रतिमा का पूजन होना चाहिए; अपनी स्वयं की प्रतिमा को वस्त्र आदि देना चाहिए; पलंग गुरु को दे दी जानी चाहिए; वह स्थान जहाँ कर्ता ठहरता है पवित्र हो जाता है; वह अपने एवं अपने परिवार के लोगों को स्वर्गलोक ले जाता है; यदि कर्ता व्रत के बीच में मूच्छित हो जाय तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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